शनिवार, 18 सितंबर 2010

सौ बार झुका आकाश यहाँ

पिछले दिनों मैं ब्लागिंग से भटक कर फेसबुक पर जा पहुँचा. वहाँ पुराने पुराने (जो अब देखने में भी पुराने पुराने से लगते हैं) दोस्त मिल गये. मैंने अपने एम.बी.ए. के साथियों का एक ग्रुप बनाया जिसका नाम रखा Nightingale`86. कल किसी ने पूछा कि मैंने अपने क्लास ग्रुप का नाम Nightingale`86 क्यूँ रखा है.  उनको बताते बताते मैंने सोचा क्यों न इसे अपने ब्लाग साथियों से बांटू. दर असल हमारी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का एक तराना है, ये मेरा चमन है मेरा चमन, मैं अपने चमन का बुलबुल हूँ. इसे अस्रारुल हक मजाज (आजकल मैं उनके शहर लखनऊ में रहता हूँ) ने 1936 में लिखा. इस तराने का बुलबुल ही Nightingale है.  मैंने अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में छ: साल गुजारे और मैं कह सकता हूँ कि सचमुच वहाँ की शाम और सुबह मिश्र और शीरज़ जैसे थे क्योंकि तुर्की सीरिया  से लेकर मलेशिया तक के बुलबुल इस चमन में चहकते थे. और हवा में कश्मीर की केसर और केरल की समंदरी मस्ती, शाम में लखनऊ की तहजीब और बिहार का अक्खड़्पन   और बंगाल का बौद्धिक कुतूहल चमन से पा-बस्ता थे.  ये तराना इस तरह है;

ये मेरा चमन है मेरा चमन, मैं अपने चमन का बुलबुल हूँ

सरशार-ए-निगाह-ए-नरगिस हूँ, पा-बस्ता-ए-गेसू-संबल हूँ

ye meraa chaman hai meraa chaman, maiN apne chaman kaa bulbul huuN
sarshaar-e-nigaah-e-nargis huuN, paa-bastaa-e-gesuu-sumbul huuN

(chaman : garden; bulbul : nightingale; sarshaar : overflowing, soaked; nigaah : sight; nargis :flower, Narcissus; paa-bastaa : embedded; gesuu : tresses; sumbul : a plant of sweet odor)

ये मेरा चमन है मेरा चमन, मैं अपने चमन का बुलबुल हूँ

ye meraa chaman hai meraa chaman, maiN apne chaman ka bulbul huuN

जो ताक-ए-हरम में रोशन है, वो शमा यहाँ भी जलती है
इस दश्त के गोशे-गोशे से, एक जू-ए-हयात उबलती है
ये दश्त-ए-जुनूँ दीवानों का, ये बज़्म-ए-वफा परवानों की
ये शहर-ए-तरब रूमानों का, ये खुल्द-ए-बरीं अरमानों की
फितरत ने सिखाई है हम को, उफ्ताद यहाँ परवाज़ यहाँ
गाये हैं वफा के गीत यहाँ, चेहरा है जुनूँ का साज़ यहाँ

jo taaq-e-haram meN roshan hai, vo shamaa yahaaN bhii jaltii hai
is dasht ke goshe-goshe se, ek juu-e-hayaat ubaltii hai
ye dasht-e-junuuN diivaanoN kaa, ye bazm-e-vafaa parvaanoN kii
ye shahr-e-tarab ruumaanoN kaa, ye Khuld-e-bariiN armaanoN kii
fitrat ne sikhaii hai ham ko, uftaad yahaaN parvaaz yahaaN
gaaye haiN vafaa ke giit yahaaN, chheRaa hai junuuN kaa saaz yahaaN

(taaq-e-haram : vault in the sacred territory of Mecca; roshan : glowing; shamaa : flame; dasht : wilderness, desert; goshaa : corner; juu-e-hayaat : stream of life; junuuN : frenzy; bazm : gathering; vafaa : faithfulness; shahr-e-tarab : city of mirth; Khuld-e-bariiN : sublime paradise; armaan : hopes; fitrat : nature; uftaad : beginning of life; parvaaz : flight; saaz : song on an instrument)

ये मेरा चमन है मेरा चमन, मैं अपने चमन का बुलबुल हूँ

ye meraa chaman hai meraa chaman, maiN apne chaman ka bulbul huuN

इस बज़्म में तेघें खेंचीं हें, इस बज़्म में सघर तोड़े हैं
इस बज़्म में आँख बिछा'ई है, इस बज़्म में दिल तक जोड़े हैं
हर शाम है शाम-ए-मिस्र यहाँ, हर शब है शब-ए-शीरज़ यहाँ
है सारे जहाँ का सोज़ यहाँ और सारे जहाँ का साज़ यहाँ
जर्रात का बोसा लेने को सौ बार झुका आकाश यहाँ
ख़ुद आँख से हम ने देखी है, बातिल की शिकस्त-ए-फाश यहाँ

is bazm meN teGheN khenchiiN haiN, is bazm meN saGhar toRe haiN
is bazm meN aanKh bichaa’ii hai, is bazm meN dil tak joRe haiN
har shaam hai shaam-e-Misr yahaaN, har shab hai shab-e-Sheeraz yahaaN
hai saare jahaaN kaa soz yahaaN aur saare jahaaN kaa saaz yahaaN
zarraat kaa bosaa lene ko, sau baar jhukaa aakaash yahaaN
Khud aankh se ham ne dekhii hai, baatil kii shikast-e-faash yahaaN

(teGh : swords; saGhar : goblets; shaam-e-Misr : evenings of Egpyt; shab-e-Sheeraz : nights of Sheeraz, a famous city of Iran; soz : pain; zarraat : dust; bosaa : kiss; baatil : evil; shikast-e-faash: clear defeat)

ये मेरा चमन है मेरा चमन, मैं अपने चमन का बुलबुल हूँ
ye mera chaman hai mera chaman, main apne chaman ka bulbul hun

जो अब्र यहाँ से उठ्ठेगा, वो सारे जहाँ पर बरसेगा
हर जू ए रवां पर बरसेगा, हर कोहे गरां पर बरसेगा
हर सर्दोसमां पर बरसेगा, हर दस्तो दमां पर बरसेगा
खुद अपने चमन पर बरसेगा, गैरों के चमन पर बरसेगा
हर शहरे तरब पर गरजेगा, हर कस्रे तरब कड़्केगा

jo abr yahaaN se uThThega, vo saare jahaaN par barsegaa
har juu-e-ravaan par barsegaa, har koh-e-garaaN par barsegaa
har sard-o-saman par barsegaa, har dasht-o-daman par barsegaa
Khud apne chaman par barsegaa, GhairoN ke chaman par barsegaa
har shahr-e-tarab par garjegaa, har qasr-e-tarab par kaRkegaa

(abr : cloud; juu-e-ravaan : flowing streams; koh-e-garaaN : big mountains; sard-o-saman : open and shelter; dasht-o-daman : wild and subdued; qasr-e-tarab : citadel of joy)

ये अब्र हमेशा बरसा है, ये अब्र हमेशा बरसेगा
ये अब्र हमेशा बरसा है, ये अब्र हमेशा बरसेगा
ये अब्र हमेशा बरसा है, ये अब्र हमेशा बरसेगा
बरसेगा, बरसेगा , बरसेगा

ye abr hameshaa barsaa hai, ye abr hameshaa barsegaa
ye abr hameshaa barsaa hai, ye abr hameshaa barsegaa
ye abr hameshaa barsaa hai, ye abr hameshaa barsegaa
barsegaa, barsegaa, barsegaa…………………..


जितना सुंदर ये तराना है उतना ही सुंदर इसका संगीत भी. इस लिंक पर आप इसे सुन सकते हैं.  http://aligarians.com/2005/12/aligarh-tarana/

सोमवार, 7 जून 2010

साबरमती आश्रम और आई आई एम

अहमदाबाद, 06 जून 2010


अहमदाबाद में हूँ. यूँ तो यहाँ आई आई एम में ट्रैनिंग के लिये आया हूँ, पर अहमदाबाद में इससे भी बड़ा ट्रैनिंग इंस्टीट्यूट मुझे साबरमती आश्रम लगता है. गांधी ने यहीं से सत्य का आग्रह किया और देश को स्वतंत्रता और स्वाबलंबन का मंत्र दिया. खादी से लेकर दांडी यात्रा तक के आंदोलन यहीं जन्मे.  यहीं से गांधीजी ने व्यापार का एक नया मॉडल दिया, ट्रस्टीशिप का मॉडल. इस मॉडल के अनुसार किसी भी व्यापार की संपदा किसी पूंजीपति की नहीं है, वह केवल उसका ट्रस्टी है जो इस संपदा के असली मालिक यानी समाज की ओर से उसकी देखभाल करता है.


आश्रम साबरमती नदी के तट पर है और देश की हर नदी की तरह इसका हाल भी बेहाल है. देखता हूँ, आश्रम में बहुत लोग आते हैं पर अधिकतर पिकनिक की तरह. उबाऊ चित्र प्रदर्शनी है और बिल्लों और पेनों के स्मारकों की दुकान भी है पर गांधी को ढूंढता हूँ , कहीं बकरी को घास खिलाते, सूत कातते या  पेड़ के नीचे वैष्णव जन तो तैने रे कहिये गवाते मिल जायें तो वे नहीं मिलते.

शनिवार, 15 मई 2010

अब पढ़ाई भी फोरेन

नालंदा के खंड़हरों के सामने खड़ा हूँ और साथ चल रहा गाइड बता रहा है, ये दुनियां की सबसे पुरानी यूनिवर्सिटी है. दुनियां भर से ज्ञान की तलाश में दस हजार विद्यार्थी  को एक हजार गुरुजन धर्म से लेकर विज्ञान  तक पढाते थे. कितना अच्छा अनुपात है, दस पर एक. प्रवेश इतना कठिन कि पहला टेस्ट तो द्वार पाल ही जिन्हें द्वार पंडित कहते थे, ले लेते थे. गाइड बता रहे हैं कि इस तरह की कई यूनिवर्सिटी भारत में थी, जैसे तक्षशिला और विक्रमशिला.


कुछ दिन बाद दिल्ली से मेरठ जाते जाते फिर देखता हूँ, इंजीनियरिंग, मैनेजमैंट आदि के कॉलेज से लेकर यूनिवर्सिटी तक की लाइन लगी हुयी है. ये सब यूं तो शिक्षा के प्रसार के लिये हैं, लाभ इनका मकसद नहीं. लेकिन ये किसी से छुपा नहीं कि शिक्षा बड़ा व्यापार बन चुकी है, भले ही यहाँ लाभ को सरप्ल्स कहते हैं. लेकिन, पिजा बर्गर की तरह फ्रेंचाइजिंग के चक्कर में प्रीस्कूल से लेकर हायर एडूकेशन तक की दर्शनीयता हर गली नुक्कड़ तक बढ़ा दी है पर गुणवत्ता गायब हो गयी है. इनमें क्लास रूम तो हैं लेकिन फैकल्टी नदारद. नालंदा के स्वर्णिम काल से ये फ्रेंचाइजिंग इरा. क्या हुआ है हमारी शिक्षा को.


इस फैलाव के समर्थक कहते हैं कि तकनीकी रूप से शिक्षित लोगों की फौज तैयार हो रही है जो देश के लिये संपत्ति है. परंतु गुणवत्ता के आभाव में केवल एक बदलाव आया है, अब समस्या बेरोजगारी की जगह अंडर एम्प्ल्योमेंट की होती जा रही है जहाँ लोग अपनी शिक्षा  के हिसाब से नौकरी नहीं पाते. इंजीनियरिंग करने के बाद कॉल सेंटर पर ग्राहकों से बतियाते हैं और मैनेजमेंट ग्रेजुयेट इंश्योरेंस पॉलिसी बेचते हैं.


पिछले दिनों, एडूकेशन फिर से चर्चा में है, राइट टू एडूकेशन का बिल हो या फोरिन यूनिवर्सिटी की आमद की खबर. इस चर्चा से सबसे पहले तो ये स्वीकारोक्ति सामने आती है कि देश में आजादी के छ: दशक से अधिक समय बीतने पर भी शिक्षा न तो बच्चों को उपलब्ध है और न बड़ों को.


हमारे देश में फोरेन का बड़ा शौक है, चाहे सामान हो या पढ़ाई. आज हम ऑक्सफोर्ड, कैंब्रिज, स्टैनफोर्ड को भारत लाने की सोच रहे हैं पर हमारी अपनी ऑक्स्फोर्ड और कैंब्रिज ऑफ ईस्ट कही जाने वाली यूनिवर्सिटीज का क्या हुआ. आज वहाँ पढ़ाई जैसा कुछ नहीं बचा, पुरानी विक्टोरियन बिल्डिंग्स के सिवा. आजादी के बाद जोर शोर से शुरु किये अनेक इंस्टीट्यूसंस, चाहे वे एग्रीकल्चर से लेकर टेक्नीकल यूनिवर्सिटीज हों या वोकेशनल और
तकनीकी शिक्षा के सेंटरस जैसे आईटीआई और पॉलीटेक्निक्स, सब बदहाल हैं. फोरिन को फौरन लाने से ज्यादा जरूरत तो इस बात की लगती है कि हम अपनी देशी यूनिवर्सिटीज और ढेर सारे और इंस्टीट्यूसंस का स्तर सुधारें और उन्हें कंपटीटिव बनायें.
हाँ, ये ठीक है कि यदि फोरेन यूनिवर्सिटीज आयेंगी तो हमारे इंस्टीट्यूसंस को कंपटीसन मिलेगा. ये एक ऐसे कैटलिस्ट का काम कर सकते हैं जो हमारे अनगिनित इंस्टीट्यूसंस को अपना स्तर सुधारने को मजबूर करें. लेकिन कुछ सवाल भी हैं. विदेशों में यूनिवर्सिटीज का एक अहम योगदान अनेक विषयों, खासकर विज्ञान में रिसर्च होता है. और उनके बजट का बड़ा हिस्सा इस पर खर्च होता है. दुनियां भर के नये नये पेटेंट्स यूनिवर्सिटीज के नाम होते है. क्या ये यूनिवर्सिटीज जब भारत आयेंगी तो यहाँ भी क्या रिसर्च पर उतना ही ध्यान देंगी. क्या वहाँ की तरह यहाँ भी स्टूडेंटस फैलोशिप और स्कॉलरशिप देंगी. क्या विषयवस्तु में भारतीय तत्व होगा. एक दार्शिनिक ने कहा है, थैंक गॉड, मैं स्कूल नहीं गया, जाता तो मेरी मौलिकता खत्म हो जाती. तो क्या ये मेहमान हमारी मौलिकता बनाये रखेंगे क्योंकि शिक्षा केवल सूचना नहीं है, संसकृति और इतिहास भी है.


शिक्षा का भारतीय बाजार बेहद बड़ा है और किसी को भी लालची बना सकता है. आज भी अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड से लेकर रूस और चीन तक का शिक्षा व्यापार भारत के छात्रों पर निर्भर है. कहीं ऐसा न हो कि फोरेन एडूकेशन की आड़ में डिग्री बांटने वाले दौयम दर्जे के शिक्षा व्यापारी आ जायें और हमारे छात्र बस उनके फोरिन नाम की चंकाचैंध में खो जायेंगे. अक्सर देखा गया है कि विदेशों से कपड़ों से लेकर लैपटॉप तक के वे ब्रांड इंपोर्ट होते हैं जो उनके मूल देशों में सैचूरेट हो जाते हैं. कहीं ऐसा ही शिक्षा के साथ न हो. ऐसे में एक इमानदार रेगूलेटरी बोर्ड की सख्त जरूरत है जो इसे शिक्षा बबल बनने से रोके और देश की आने वाली पीढियों के भविष्य का ख्याल रख सके.

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

आम और मोबाइल टावर

आम का एक बाग देखा तो रुक गया. याद आयी बचपन की वे गरमियां जो ऐसे ही बागों में गुजारीं थी, कच्चे पक्के आम खाते, कच्चा दूध पीते और पास बहती नहर में नहाते. तरह तरह कर्कश हॉर्न मुझे टाइम मशीन से वापस वर्तमान में ले आते हैं. फ्लैश बैक को केवल हॉर्न नहीं छेड़ते, माबाइल की घंटी भी बजती रहती है. इतनी कि पता ही नहीं चलता कि फोन मेरा है कि किसी और का. उसकी सर्वव्याप्तता आम के बाग में भी दिखती है. आम के फलों से लदे मनोहारी पेड़ से एक मोबाइल टावर छेड़ छाड़ कर रहा है.
आम अभी छोटे छोटे हैं, पकने में कुछ हफ्ते लग जायेंगे. यात्रा आगे जारी रखता हूँ.   

रविवार, 4 अप्रैल 2010

मौसम सूना सूना सा

मेरठ, 04.04.2010  
यात्रा पर हूँ. आम पर खूब बौर दिख रहा है. इतना कि आम की शानदार फसल की उम्मीद से मुंह में पानी आ रहा है. अमराई से कोयल की कुह कुह  सुनाई दे रही है. ये मौसम मुझे बड़ा अच्छा लगता है, थोड़ा सूनापन लिये पर आशा से भरपूर.



लेकिन, गर्मी की आहट तेजी से सुनायी दे रही है. समय से तेज और असर से भी. गेहूं पक गया है और खेतों में जैसे सोना बिखरा है. कहीं कहीं कटाई शुरु हो गयी है. पसीने में लथपथ किसान लगे हैं.


दूर सौंफ भी पक रही है और एक पलाश का पेड़ अकेला खड़ा है. कभी पूरे के पूरे जंगल थे पलाश के इस क्षेत्र में, कितना मनोरम लगता था परिदृश्य.

मंगलवार, 23 मार्च 2010

क्राँति की फसल

23 मार्च 2010 
आज भगत सिंह का शहीदी दिवस है. आज उन्हें सुखदेव व राजगुरु के साथ फांसी दे दी गयी थी.  उन पर लिखी यह पोस्ट  संभव शर्मा की http://esambhav.blogspot.com/ पोस्ट Crop of Revolution का एक अनुवाद है

किसी भी फिल्म स्टार का जन्मदिन होता है तो सब टीवी चैनल सुबह से उन्हें हैप्पी बर्थडे की रट लगा देते हैं, पर हमारी आजादी के लिये अपनी जान दे देने वाले  महानायक किसी को याद भी नहीं आते.



मैं भगत सिंह के खटखरकलां,(जिला नवांशहर, पंजाब) के पैत्रिक घर के सामने खडी सोच रही थी कि किसी में इतना जुनून कैसे हो सकता है कि वह अपने देश की आजादी के लिये अपनी जान ही दे दे. हमारी पीढ़ी जिसने आजाद भारत में जन्म लिया, के लिये ये समझना बहुत मुश्किल है. भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर 1907 को हुआ और बाद में वे शहीद ऐ आजम के नाम से जाने गये. वे भारत के सबसे असरदार स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे.


जिस उम्र में हम निरुद्देश्य घूमते हैं उस उम्र में उन्होंने फांसी के फंदे को चूम लिया. 23 मार्च 1931 को फांसी के समय वे केवल 24 साल के थे. उस समय वह गाँधी जी से भी ज्यादा लोकप्रिय  थे और अपने समय के यूथ आइकोन थे. आज के फिल्म स्टारस से कहीं बडे. उन दिनों के युवा उन जैसे बनना चाहते थे.


उस बच्चे के बारे में सोचिये जिसने बंदूक बोई ताकि बंदूकों की फसल उगे. माना ये उसकी कल्पना थी पर उसने अपने जैसे विचारों वाले युवा जो देश के लिये जान ले सकते थे और दे भी सकते थे, के साथ क्रांति की फसल उगाई. 1919 में जलियांवाला हत्याकांड ने 12 साल के भगत सिंह को झकझोर दिया और उस दिन उसे अपने जीवन का उद्देश्य मिल गया. उन्होंने चंद्रशेखर आजाद जैसे नायकों के साथ मिल कर अपना जीवन देश को दे दिया  और हम माता पिता की रोक टोक पर ही कह उठते हैं, ये मेरी लाइफ है !


भगत सिंह से हमारी पीढ़ी जो सीख सकती है उसमें सबसे खास बात यह है कि उन्होंने कुछ भी उत्तेजना में नहीं किया. उनके सब काम चाहे वह सांडरस की हत्या हो या एसैम्बली में बंब फेंकना, एक सोची समझी योजना का हिस्सा थे. वे एसैम्बली में बंब फेंक कर भाग सकते थे पर उन्होंने गिरफ्तार होना पसंद किया. उनका उद्देश्य  था, कोर्ट की कार्यवाही को अपने विचार देश के युवाओं में फैलाने के माध्यम के रूप में प्रयोग करना.


और वे इसमें सफल रहे, अपने जीवन में भी और उससे ज्यादा अपनी मौत में भी. वे आज भी प्रासंगिक हैं, जब हमें उन जैसे निस्वार्थ नेता चाहिये. वे एक आदर्श थे तब के युवाओं के लिये भी और आज के भी. 


इस तीर्थ यात्रा जैसे सफर से घर लौटते हुये मुझे ये देखकर खुशी हुयी कि जहाँ तक कार के पीछे स्टिकर लगाने की बात है, पंजाब में आज भी भगत सिंह बहुत लोकप्रिय हैं. पर क्या स्टिकर के बाहर भी भगत सिंह हैं.


क्या केवल रंग दे बसंती जैसी फिल्मों का युवा ही उनका आज का संसकरण है. नहीं! भाई. हम जहाँ हों हम अपने लिये जगह बना सकते हैं. उनके विचार पढिये तो लगता है कि पिछ्ली शताब्दी के शुरू में भी वे कितने प्रोग्रेसिव थे.  आजादी केवल रोड पर बेरोक टोक घूमना तो है नहीं. भारत सचमुच, “सारे जहाँ से अच्छा” हो सके उसके लिये हमें एक और आजादी की लडाई शुरु कर ही देनी चाहिये. आजादी अशिक्षा से, जाति और धर्म की दीवारों से, भूख से और स्वास्थ से.


यदि भगत सिंह ये कर सकते थे तो हम भी कर सकते हैं वो भी तो हम जैसे ही थे.

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

अलविदा हुसैन

आजकल प्रख्यात पेंटर एम एफ हुसैन के कतर की नागरिकता लेने की चर्चा जोरों पर है. और हम यूँ ही अपराधी से ग्लानि से भर उठे हैं. ग्लानि तो हुसैन को होनी चाहिये कि भारत जैसी विशाल पहचान को छोड़ कतर की पहचान ओढ़ ली. लोग कहते हैं उन्हें डर ने मजबूर किया. कैसा डर, किससे डर ? पूरा देश आतंक से ग्रसित है, क्या पूरे देश के लिये कतर में जगह है? या केवल कानून से डरने वाले लोगों के लिये. याद दिलायें कि भारत के कितने ही भगोड़े, दाउद समेत कतर और उसके कई पडौसी देशों में मुँह छिपाते हैं और वहाँ से भारत को घायल करते हैं. और तर्क ये कि ये देश आजाद हैं, रोक टोक से मुक्त. मुकदमों से मुक्त. इन देशों के धन के द्वार आतंकवादियों के लिये हमेशा खुले रहते हैं.


भारत का केवल 0.35% क्षेत्रफल है इस देश का और तेल कितना भी हो पानी दो बूंद भी नहीं. कुल नो लाख लोग रहते हैं वहाँ (जिसमें केवल तीन लाख नागरिक हैं और बाकी सब हुसैन जैसे). सचमुच भारत के सामने एक कतरा. पर हमें उस देश से शिकायत नहीं और न एम एफ हुसैन से. हुसैन जैसे धन और विवाद लोलुप सज्जन अक्सर विदेशों में ही रहते हैं. हुसैन के प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट मूवमेंट साथी फ्रांसिस न्यूटन सूजा हों या सितार वादक रविशंकर सबको विदेश पसंद आता है. वहाँ की आजाद और खुशनुमा हवा में विचार ज्यादा आते हैं ऐसा नहीं (ऐसा होता तो दुनियां की सबसे सुंदर पेंटिंग्स अजंता की अंधेरी गुफाओं में नहीं होती). मुझे तो शक है कि वहाँ की हवा आजाद और खुशनुमा है भी कि नहीं. कलाकारों और लेखकों पर जुल्म के किस्से भारत से कहीं ज्यादा विदेशों में मशहूर हैं. अब कतर को ही लें, कुछ साल पहले जब पैगम्बर साहब के बेहूदा कार्टून छपे तो कतर रोश प्रकट करने वाले देशों में आगे था (यहाँ तक कि सरकारी मीडिया के जरिये). धार्मिक सद्भाव की बात छिड़ी है तो ये भी कि हुसैन का धर्म बोहरा है जिसे अरब (कतर जिसका हिस्सा है) अच्छी नजर से नहीं देखते.

अगर आपसे किसी के विचार नहीं मिलते और वो आपका विरोध करता है तो आप उसे अपने प्रति विद्रोह मानेंगे और पूरे देश और समाज को दोषी कहेंगे. भले ही उस देश ने आपको सब बड़े बड़े पुरस्कार दे डाले हों. तो सार ये कि हुसैन जैसे लोग तफरीयन ये सब करते हैं, आजादी से उनका कोई वास्ता नहीं.

और ये भी कि भारत हुसैन से और उनके कतर से कहीं अधिक विशाल है, उसे शर्माने की आवश्यकता नहीं. उसे तो गर्व करना चाहिये अपने उन कलाकारों पर जिन्होंने हुसैन की तरह धन और नाम की आशा नहीं की और अजंता और उस जैसी कितनी ही अमर धरोहर छोड़ गये हमारे गौरव के लिये.

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

लला फिर आइयो खेलन होरी

होली आ रही है और ब्रज की होली तो सबसे निराली होती है, क्योंकि स्वयम राधा कृष्ण उतर आते हैं होली का आनंद लेने. उधर गिरिजेश के ब्लाग पर फाग महोत्सव जारी है, सो मैंने भी सोचा ब्रज के होली लोक गीत से ही मनाऊं होली.


नैक उरै आ श्याम
तोपे रंग डारूं

नैक उरै आ...
लाल गुलाल मलूं तेरे मुख सौ
गालन पै गुलचां मारूं
नैक उरै आ...



कौन गांव के कृष्ण कन्हइया
कौन गांव राधा गोरी
नैक उरै आ.....
नंद गांव के कृष्ण कन्हइया
बरसाने की राधा गोरी
नैक उरै आ.....

कोरे कोरे कलश भराये
उनमें केसर घोरी रे
नैक उरै आ.....
नैक उरै आ श्याम
तोपे रंग डारूं
नैक उरै आ...

कौन के हाथ पिचकरा सोहे
कौन के हाथ कमौरी रे
नैक उरै आ ...
कृष्ण के हाथ पिचकरा सोहे
राधा के हाथ कमौरी रे
नैक उरै आ ...

उड़त गुलाल लाल भये बादर
अबिर उड़े भरजोरी रे
नैक उरै आ ...
नैक उरै आ श्याम
तोपे रंग डारूं
नैक उरै आ...

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

ओ मेरे जीवन साथी

पिछले माह ठंड चरम पर थी और ऑफिस में काम भी कुछ अधिक रहा, तो लम्बे समय तक पोस्ट लिख न सका और न ही अच्छे अच्छे पोस्ट पढ़ सका. खैर, अब थोड़ा समय मिला है और मौसम बेहद सुहाना है और कल वेलंटाइन डे है.

चौदह फरवरी को हमारे विवाह की वर्षगांठ होती है. पर जब हमारी शादी हुयी थी तब हम नहीं जानते थे कि ये दिन वेलंटाइन डे है. ये तो पिछले कुछ सालों में एक नये उत्सव के रूप में उभरा है. प्यार को सेलीब्रेट करने का उत्सव. लेकिन इस दौरान इसे कितने ही विरोध झेलने पड़े क्योंकि समाज के एक हिस्से को लगा कि प्यार सड़कों और बाजारों में दिखाने वाली अनुभूति नहीं. ये निजी बात है और निजता बनी रहे तो बेहतर.

इसके लिये काफी हद तक इस उत्सव के समर्थक भी रहे जिन्होंने प्यार को फ्लर्टिंग और मौज-मस्ती से जोड़ कर पेश किया. वरना तो हमारे देश में प्रेम का उत्सव मनाने का बड़ा पुराना रिवाज है. और क्या संयोग है कि उसका समय भी यही होता है. बसंत का समय, जब ठंड जा चुकी होती है और मौसम बेहद मधुर होता है. चारो और बहार होती है, सुंदर रंग बिरंगे फूलों की. आम पर बौर आ चुका होता है और सरसों फूल रही होती है. इस उत्सव का नाम है, मदनोत्सव या कामोत्सव. यद्यपि अब ये उत्सव भुलाया जा चुका है. मदन अर्थात कामदेव. पश्चिम में जिसे क्यूपिड कहा जाता है. जिसका धनुष सुंदर फूलों का होता है और तीर चलने पर स्वर नहीं करता.



दुष्यंत शकुंतला, सोहनी महीवाल के भौतिक प्रेम से लेकर कृष्ण राधा के दैविक प्रेम तक, प्रेम प्रिय को और आराध्य को पाने की विधा रही है हमारे देश में. ऐसे में जब वेलंटाइन डे पर हुडदंग और प्रति हुडदंग होता है तो अजीब लगता है. खैर हमारे लिये तो यह एक तारीख है जब हम जीवनसाथी बनें, हमारी परंपरानुसार एक दो नहीं सात सात जन्मों के जीवन साथी. सो, आज हमें और सभी को हैप्पी वेलंटाइन डे.

शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

गरदन और छत के बीच की रस्सी


पिछले दिनो  कुछ ऐसा हुआ कि मुझे ये तस्वीर याद आयी. मैं अयोध्या में था और गलियों में घूमते घूमते एक युवती मिली अपने घर के द्वार पर. पिताजी ने कहा, बेटी कितनी भाग्यशाली हो, भगवान के सानिध्य में रहती हो. युवती ने कहा, हाँ, भाग्यशाली तो हूँ, तभी राक्षसों से बच के आ गयी. और पूछा तो पता चला दहेज की सताई थी, सुसराली जनों के अत्याचार से बचकर भागी.
फिर आयी खबर कि कैसे एक युवती को बीच समंदर दहेज की सुरसा ने निगल लिया. जबकि वो तो अपने पैरों पर खड़ी आधुनिक नारी थी. 

सोचते सोचते याद आयी लगभग पच्चीस साल पुरानी उपर की तस्वीर, तीन या चार बहिनों ने कानपुर में मौत को गले लगाया था क्योंकि उन्हें लगता था कि दहेज के कारण वे अपने पिता पर बोझ हैं. इस तस्वीर ने मुझे झकझोर दिया था और मैंने निर्णय लिया कि मैं ऐसी शादी में नहीं जाउंगा जहाँ दहेज लिया जाये. जानते हैं क्या हुआ उस निर्णय का परिणाम ! तबसे आज तक मैं चार छ: शादियों में ही जा पाया. एक अपनी, जिसमें मैंने प्रतीक के रूप में कुछ लेना अस्वीकार किया, दो बहिनों की जिनमें मैंने कन्या दान भी नहीं किया क्योंकि मैंने माना कि मेरी बहिनें वस्तु नहीं जिन्हें मैं दान में देदूं.  मैं बंधु बान्धवों मित्रों सबकी शादी से वंचित रहा. मेरा इतनी कम शादियों में जा पाना मेरी और समाज की हार है. कुछ नहीं बदल पाया 25 सालों में सिवा इसके कि अब दूसरी पीढ़ी की शादियां होने वाली हैं और मेरी पत्नी कहती हैं कि जब दूसरों की शादियों में नहीं जाओगे तो तुम्हारी बेटियों की शादियों में कौन आयेगा. मैं कहता हूँ, चाहता तो मैं भी हूँ कि जाऊँ और दुल्हे दुल्हन को आशीष दूं,  पर क्या करूं इन लड़कियों की गरदन और छत के बीच की रस्सी ने बांधे रखा है मुझे.  

रविवार, 3 जनवरी 2010

मात्र रासो रचो तुम


व्यंग भरे अभिनय उन्हें भाते नहीं
मात्र मुजरा करो तुम
उनके हुजूर में
प्रति दिन झुका करो तुम



शब्द का प्रश्न के लिये प्रयोग
अब होगा नहीं मात्र रासो रचो तुम

सत्य का प्रचार पाप है जब
सत्य से प्यार है तुम्हें
फिर ये चीत्कार क्यूँ
संगसार सहो तुम

आग खून आह आँसू
प्यास भूख औ जलन
ये क्या चित्र बना दिया तुमने
मात्र सुंदर दिखो तुम

सांस लेने पर रोक तो नहीं
न रोने पर कोई प्रतिबंध
फिर किस बात की शिकायत
वो क्या करें,
ये नियति का विषय है
जियो या मरो तुम

 
* यह लिखा था मैंने बीस साल पहले जब 2 जनवरी 1989 को प्रख्यात रंगकर्मी सफदर हाशमी को मार दिया था कुछ ऐसे लोगों ने जिन्हें सच तो आता ही नहीं, नहीं आता सच को सहना और देखना भी.