शनिवार, 26 सितंबर 2009

सर्वेसंतु निरामया:।



भुवाली, 15 सितम्बर 2009


नैनीताल के पास भुवाली में हूँ. भुवाली जो अपने प्राकृतिक सौन्दर्य से ज्यादा टीबी सेनोटेरियम के लिये जाना
जाता है. इसकी ख़्याति इससे भी है कि जवाहर लाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू ने यहाँ इलाज कराया था. पर टीबी उन दिनों एक जान लेवा बीमारी थी और भुवाली जैसे स्थान बस बीमारों की अंतिम यात्रा थोडी कम कष्टप्रद बना देते थे. पिछ्ली सदी में विज्ञान ने टीबी का तो इलाज ढूंढ लिया और आज किसी को भुवाली नहीं जाना होता, डाकिया उसकी दवाई घर पहँचा देता है.


लेकिन, दुनिया में बीमारियों की कमी नहीं, एक से बढ्कर एक मारक. हर दिन एक नयी बीमारी से सामना होता है, कभी चिंपेंजियों के जरिये, कभी मुर्गे के और कभी सुअर के. फिर सडक और अन्य हादसे. प्रजनन आदि से संबन्धित कष्ट भी कितनी स्त्रियों की जान ले लेते हैं. और आज की कुंठा भरी दुनियां में आत्मघात भी एक बडी बीमारी है.


बुद्ध ने ठीक ही कहा था, दुख हैं !


विज्ञान की इतनी तरक्की के उपरांत भी तीसरी दुनिया के देशों में स्वास्थ सेवायें खुद बीमार हैं. और भारत तो तीसरी दुनियां का सिरमौर है. एक तो हमारे देश में सार्वजनिक अस्पताल बस बडे बडे शहरों तक सीमित हैं फिर उनका संचालन ऐसा कि आदमी को लगता है कि बीमारी का इलाज कराते कराते एक नयी बीमारी साथ न होले. ग्रामीण क्षेत्रों के लिये तो उनके घर से अस्पताल की दूरी ही जान लेवा हो जाती है. आज भी कितनी प्रसूतायें नया जीवन देते देते अपना जीवन खो देती हैं.






हल्द्वानी के आस पास घूमते घूमते एक एम्बूलेंस जैसी गाडी पर बार बार नजर जाती है. साथ में शलभ हैं, पूछा तो पता चला कि ये उत्तराखंड सरकार की अल्ट्रा माडर्न एंबूलेंस सेवा है जिसको 108 सेवा कहा जाता है. 108 इसलिये कि ये टोल फ्री टेलीफोन नम्बर है जिस पर लोग परेशानी में फोन करते हैं और 15-20 मिनट में एंबूलेंस उनके पास पहुँच जाती है. ये बीमार को नजदीकी अस्पताल ले जाती है. अगर समस्या गंभीर नहीं तो ये एंबुलेंस के साथ चलता फिरता अस्पताल भी है. गंभीर बीमारों को अस्पताल पहुँचाने के अलावा, इस एंबूलेंस ने मेटर्निटी अस्पताल का काम बखूबी निभाया है, हजारों गर्भवती माताओं को अस्पताल पहुँचा कर या सैंकडो मामलों में चलते चलते ही सफल व सुरक्षित जनन करा कर. क्या खूब ! ऐसी सेवा तो बडे बडे शहरों में भी नहीं.


बाद में पता चला कि यह सेवा आंध्र, गुजरात, गोआ और मेघालय में भी है और कुछ अन्य राज्य इसे चालू करने की योजना बना रहे हैं. ये भी कि इस प्रकार की सेवायें तो सब राज्य दे सकते हैं, नेशनल रूरल हैल्थ मिशन के तहत.


सार यह कि जब अच्छी स्वास्थ सेवाओं की बात हो तो केवल विदेश ही उदाहरण नहीं, हमारे देश में भी नखलिस्तान हैं. लेकिन बहुत से राज्यों की समस्या उनका गैर उत्पादक कार्यों में व्यस्त रहना भी है. और सही तो यह कि इच्छा का आभाव भी है. पिछ्ले दिनों ये भी पता चला कि रूरल हैल्थ इंश्योरेंस कार्यक्रमों के तहत ग्रामीण गरीबों को साल में तीस हजार तक के मुफ्त इलाज की व्यवस्था है, लेकिन ऐसे ग्रामीण नहीं मिले जिन तक ये सुविधा पहुँची हो.




तो सर्वेसंतु निरामया: का ध्येय कब पूरा होगा ? बुद्ध ने ये भी कहा था कि दुख का निदान भी है. आवश्यकता है बस सभी के वह करने की जो कुछ करते हैं.


शनिवार, 19 सितंबर 2009

हमारी वाली ईद


लखनऊ 19 सितम्बर 09

ईद मुबारक.



इसे मैं उत्तर प्रदेश के समाज का ताना बाना मानूं या एक संयोग कि मेरा पूरा बचपन और किशोरावस्था ऐसे स्थानों पर बीती जो मुस्लिम संस्कृति से ओत प्रोत थे.


आँवला, बरेली जिले की एक तहसील है, एक छोटा सा कस्बा. मेरा बचपन यहाँ बीता. यहाँ मुस्लिम आबादी तो खूब थी ही साथ में मुस्लिम संस्कृति का पूरा असर शहर पर था. शायद पूर्व में रूहेला हुकुमत का एक प्रमुख केन्द्र होने के कारण. यहाँ मुस्लिम बस्तियाँ अलग तो थी पर अलग नहीं थी. हमारे घर के पीछे मुस्लिम बस्ती थी और सामने मस्जिद. फज्र की अज़ान से ही हमारी नींद खुलती थी.


अलग अलग संस्कृतियों का मिलन ऐसा था कि ईद की खुशी से हम बच नहीं सकते थे और दीपावली की रोशनी उनके घरों को रोशन करके ही मानती थी. इस मेल से कभी कभी उलझन भी खडी हो जाती थी. एक बार मोहर्र्म और होली आसपास थे. मोहर्र्म का जुलूस हमारे घर के नीचे से निकल रहा था और उस त्योहार की संजीदगी से बेखबर मैंने अपनी पिचकारी का मुँह खोल दिया. एक बुजुर्ग के कपडे खराब हुये तो उन्होंने तीखी नजरों से मुझे देखा, चिल्लाया और मेरा डर से बुरा हाल. इतने में लाला रामप्रताप जी जिनकी मस्जिद के पास दुकान थी, बोले, हाजी साहब! गम में गुस्सा ! थूक दो. हाजी साहब मुस्कराये और आगे बढ गये. उस दिन मुझे मोहर्र्म और गम का रिश्ता समझ आया.


लेकिन आज गम की नहीं हम ईद की बात करने बैठे हैं. ईद का अर्थ ही होता है खुशी. और ईद पर आँवला की हवा में भी खुशी होती थी.


आँवला में मेरे कई दोस्त थे इनमें एक था रफीक. उसका धर्म या गरीबी कभी हमारी दोस्ती के बीच नहीं आयी. सच तो यह है कि हमारे मन तब तक सामाजिक विभाजन की ये धार्मिक या आर्थिक दरारें थी ही नहीं. रफीक के पिता सलीम साहब तांगा चलाते थे. बहुत बाद में वे अचानक रिक्शा चलाने लगे. रफीक से पूछा तो पता चला कि उन्हें अपने बच्चों को पालने के लिये घोडे पर जुल्म अच्छा नहीं लगा और खुद रिक्शा चलाना बेहतर लगा. कितने खूबसूरत विचार!


ईद आती थी तो हम भी ईदगाह जाते थे, भले ही हमारा उद्देश्य नमाज नहीं मेला होता था. सबसे गले मिलते और फिर दोस्तों के घर सैंवई की दावत उडाते. एक मजेदार बात और, पिताजी अपने मुस्लिम मिलने जुलने वालों से कहा करते थे कि ये ईद हमारी है और बकरीद आपकी. उनका अर्थ था कि हम ठहरे शुद्ध शाकाहारी, बकरीद के मांस से बने पकवान हमारे किस काम के. हमारी ईद तो ईद उल फित्र है जब सैंवई बनें. इसे हम बहुत दिनों तो शाब्दिक अर्थ में लेकर ईद उल फित्र को अपना त्योहार मानते रहे.


आर्थिक तंगी इस तरह थी कि शाम को जब सलीम साहब घर लौटते तो रफीक रघ्घन की दुकान से एक दिन के लिये आटा, तेल और मसाले ले जाता. लेकिन ईद पर उसका परिवार भी फित्र ( दान ) में अनाज देता. ईद खुशी है और जब तक सब एक-दूसरे की खुशी में शरीक न हों तब तक ईद कहाँ. पृथ्वी पर गरीबों की कमी नहीं, जो अपने को गरीब समझते हैं उनसे भी गरीब कोई है. तो उनको दान दिया जाए तकि वे भी ईद की खुशियाँ मनायें.


हाईस्कूल के बाद हम अलीगढ आ गये और फिर रफीक नहीं मिला. न जिस्मानी न रूहानी. अलीगढ की हवाओं में भी ईद की खुश्बू बहती थी और दीपावली का प्रकाश भी, यहाँ भी मेरे मुस्लिम दोस्त बने और ईद की सैंवइयां भी खूब खाईं पर एक विभाजन था एक दरार थी. अलीगढ दंगों के लिये कुख्यात था. दंगा हर साल एक रिवाज की तरह लौटता था, ये अलग बात है कि ये तय नहीं था कि किस बात पे दंगा होगा. अलीगढ ने मुझे एक अलग इस्लाम से भी मिलाया. बहुत बाद में जाना कि जहाँ संभवत: मेरे बचपन के आँवला का इस्लाम बरेली का हिस्सा होने के नाते इस्लाम की नरम बरेलवी विचार धारा में डूबा था, अलीगढ दुनियाँ भर की इस्लामी विचार धाराओं का गढ था और दुविधा में था.


इन दिनों लखनऊ में हूँ. मेरी ही तरह मेरी पत्नी की भी सबसे अच्छी दोस्त मुस्लिम है. अपनी वाली ईद पर हम उनके घर जाते हैं तरह तरह की सैंवईं खाते हैं और खुशी मनाते हैं. जब उनके और मेरे बच्चे उनसे और हमसे ईदी माँगते हैं तो मुझे लगता है मेरा बचपन लौट आया है.


ईद मुबारक.

सोमवार, 14 सितंबर 2009

हमें उस पौष के नवान्न की प्रतीक्षा है

हल्द्वानी 14 सितम्बर 09

एक हजार साल ! किसी भी दृष्टि से ये एक लंबा समय होता है. इस अवधि में भारत ने भारतीय कला और विद्या की पराकाष्ठा देखी और उसका पतन भी. तंजावुर के सुंदर मंदिर या नालंदा का विशाल विश्वविद्यालय सभी कुछ पिछ्ली सहस्राब्दि के प्रार्ंम्भ में हो रहा था.


लेकिन आज तो हम उस सहस्राब्दि के प्रार्ंम्भ में जन्मी एक जीवंत संस्था की बात कर रहे हैं. ये है हिन्दी. अमीर खुसरो के समय तक हिन्दी विकसित हो चुकी थी और वे इसके पहले ब्रांड एंबेसडर कहे जा सकते हैं. उन्होंने कहा था, “मैं हिंदी की तूती हूँ, तुम्हें मुझसे कुछ पूछना हो तो हिंदी में पूछो, तब मैं तुम्हें सब कुछ बता दूँगा।” लेकिन एक हजार साल बाद भी खुसरो की तूती, नक्करखाने में तूती की आवाज जैसी लगती है.


हिन्दी दुनियाँ में दूसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है जिसे लगभग पचास करोड लोग बोलते हैं जो स्वयम भारत व चीन को छोड्कर किसी भी देश की जनसंख्या से कई गुना ज्यादा है. दूसरी ओर इस महादेश के केवल पाँच सात करोड लोग ही अंग्रेजी बोलते समझते हैं, इससे अधिक लोग तो बंग्ला, तेलगू, मराठी, तमिल बोलते हैं. साथ ही अंग्रेजी वे अपनी दूसरी भाषा के रूप में बोलते हैं, और उसकी गुणवत्ता की बात न करें तो बेहतर. अर्थ यह भी कि जब ये लोग अंग्रेजी बोलते हैं तो वे अपने को सीमित करते हैं.


तो फिर दिक्कत क्या है ? दिक्कत तो हमारे मन में है.


बार बार ये बताने का कोई लाभ नहीं कि किस तरह चीन जैसे विशाल और इजराएल जैसे छोटे देश में अपनी भाषा स्थापित हो गयी. हम तो बस इतने में खुश हो जाते हैं कि हमने चीन को पश्चिम की ओर माइग्रेशन में इसलिये पछाड दिया क्योंकि हमारे लोगों की अंग्रेजी अच्छी है. लेकिन ये एक भ्रम है, अंग्रेजी कुछ लोगों को नौकरी पाने का साधन तो हो सकती है, पर मेरे और तेरे बीच के संवाद की भाषा नहीं. उसके लिये वही भाषा काम आती है जिसमें हम सोचते हैं.


तो क्या हम ये कह रहे हैं कि अंग्रेजी बाय बाय. नहीं, बिल्कुल नहीं. आप जानते हैं, आजकल हमारे देश के ढेर सारे बच्चे पढने रूस और चीन जाते हैं. और ये दोनों ही देश अंग्रेजी में तो पढाने से रहे ( हांलाकि चीन में अब कुछ कालेज अंग्रेजी माध्यम का विकल्प रखते हैं). तब कैसे पढते और रहते हैं ये बच्चे ? जब वे इस तरह के गैर अंग्रेजी देशों में पहुँचते हैं तो पहले कुछ महिने इन्हें वहाँ की भाषा सिखाई जाती है और फिर शुरू होती है उनकी असली पढाई. इस के दो अर्थ हैं, एक, जब रूसी और मेंडारि‍न में तकनीकी शिक्षा हो सकती है तो हिन्दी या फिर किसी अन्य भारतीय भाषा में क्यों नहीं ? दो, जब लोग जरूरत पडने पर रूसी और मेंडारि‍न और न जाने कैसी कैसी कठिन भाषायें कुछ ही समय में सीख लेते हैं तो जब जिसे जरूरत हो अंग्रेजी सीख ले, उसे अनिवार्य रूप से पढाने,थोपने की आवश्यकता क्यों?


हिन्दी भावना के अतिरिक्त बाजारवाद की जरूरत भी है. इस देश की हिन्दी बोलने वाली जनसंख्या में पच्चीस आस्ट्रेलिया समा सकते हैं. ये बहुत बडा बाजार है, इससे संवाद, इसकी अपनी भाषा में हो तो ही इसका दोहन होगा. हाँलाकि ये बात अब सबकी समझ में आ रही है तभी तो दुनियाँ भर की कम्पनियाँ हिन्दीभाषी लोगों के लिये उत्पाद बना रही हैं, हिन्दी में विज्ञापन बना रही हैं और हिन्दी धारावाहिकों को प्रायोजित कर रही हैं.


त्योहरों के इस देश में, हमने हिन्दी दिवस को भी एक त्योहार बना दिया है. त्योहार मनाइये और गणपति बप्पा... की तर्ज पर कहिये हिन्दी दिवस मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ. और इस बार का हिन्दी दिवस तो खास है, इस बार ये सठिया गया है. कहा जाता है कि साठ वर्ष या इससे अधिक का हो जाने पर मानसिक शक्तियों के क्षीण हो जाने के कारण ठीक तरह से काम-धंधा करने या सोचने-समझने के योग्य नहीं रहते । लेकिन खुश खबर यह है कि हिन्दी के साथ ऐसा नहीं हो रहा.


व्यवस्था की असंवेदनशीलता जो केवल ये आँकडे जुटाने में व्यस्त रहता है कि किसने कितने पत्र हिन्दी में लिखे, के बाबजूद हिन्दी अपना दायरा बढा रही है. आप नेट पर जाइये, अनगिनित हिन्दी ब्लाग्स से सामना होगा. आज करोड़ों की संख्या में हिन्दी अखबार छप रहे और रीडरशिप में अंग्रेजी अखबारों को पीछे छोड रहे हैं. हिन्दी के टीवी चैनल चैन्नई में भी दर्शकों को सम्मोहित कर रहे हैं, हर गृहणी को चिंता है कि कल टीवी बहुओं का क्या होगा ? हिन्दी समाचार चैनलों पर आंध्र के दर्शक भी अपनी टिप्पणी हिन्दी में देते दिख जायेंगे.


सार यह कि हिन्दी को तो कल अपना स्थान पाना ही है, बात बस समय की है. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने हिन्दी के विषय में कहा था कि हिंदी की स्वाभाविक उर्वरता नहीं मर सकती, वहाँ खेती के सुदिन आएँगे और पौष मास में नवान्न उत्सव होगा।


हमें उस पौष की प्रतीक्षा है.

मंगलवार, 8 सितंबर 2009

मेरे पास बस भूख थी




 
लखनऊ 7 सितम्बर 09

बडी अद्भुत माया है प्रकृति की. कल तक तो सूखा सूखा का प्रलाप था और अब सुनते हैं कि बाढ़ आ रही है. निकटवर्ती घाघरा / सरयू की बाढ़ प्रलयकारी हो रही है. बाढ़ राहत कार्य शुरू हो गये हैं. पर समाचार बताते हैं कि राहत से कोई राहत नहीं हैं. कितना त्रासद है.


हे राम !    पर इसी सरयू ने तो राम को भी अपने में समाहित कर लिया था.


इस समाचार ने मुझे लगभग दस साल पहले की याद दिला दी. मैं तब इलाहाबाद में था और बाढ़ आयी थी. पर ये न गंगा में थी और न यमुना में. सरस्वती तो बहती ही नहीं, बढेगी कहाँ से. ये बाढ़ थी, टोंस में. इलाहाबाद की बात होती है तो हमें गंगा, यमुना, सरस्वती ही याद आती हैं पर पूरा क्षेत्र छोटी छोटी नदियों से भरा है. एक नदी का नाम मुझे याद आता है, ससुर खदेरी, स्त्रियाँ तो स्त्रियाँ, नदी भी सास ससुर की सताई हुयी? पर इस परित्यक्ता की बात फिर कभी.

टोंस इलाहबाद के दक्षिण में यमुना पार बहती है. विन्ध्य पर्वत से निकली ये नदी यूँ तो अपनी इलाहाबादी भगिनियों के सामने बहुत छोटी है पर अपनी छोटी छोटी बहनों के साथ प्रचीन सभ्यता की कुंजिया समेटे हुये है.


तो, टोंस में बाढ़ आ गयी. घर द्वार खेत सडक सब बहा ले गयी. मंत्रीजी की ओर से बाढ़ राहत की बात हुयी और पूरा अमला चल पडा.




स्थिति सचमुच त्रासद थी. वाहन चलने को सडक न थी. पहिये धंसे जाते थे. कई कारें रास्ते में ही साथ छोड गईं.


साथ चल रहे क्षेत्रीय अधिकारी ने काफिला एक जगह रोका, कहने लगे यहाँ एक गाँव था. पूरा का पूरा बह गया. पेड पर टंगे भूसे चारे के कण बता रहे थे कि पानी ने पेड पर चढने की सफल कोशिश की थी.



फिर वह अब गाँव कहाँ है?


क्षेत्रीय अधिकारी बोले, कुछ दूर, हमने ऊँची जगह पर कैम्प लगाये हैं. वहीं है गाँव. लेकिन कार न जा पायेगी. पैदल जाना होगा. आधे लोगों की बाढ़ सफारी यहीं समाप्त हो गयी.


कुछ लोग घुटनों घुटनों कीचड में चल कर कैम्प गाँव में पहुँचे. कैसा कैम्प है ये! लोगों को नीली पन्नी दे दी गयी है और उन्होंने खाट खडी कर उसे बांध लिया है. यही है सरकारी कैम्प. सचमुच लोगों की खाट खडी है.



पहुँचे तो पुरुष और बच्चे हमें घेर कर खडे हो गये. सरकार ने पन्नी के साथ सत्तू भी दिया है, स्त्रियाँ उसे घोल रही हैं. कुछ गीली लकडी को जलाने का यत्न कर रही हैं पर जल आग पर भारी है.




मंत्री महोदय ग्रामीणों से बात करने लगे.


कहाँ तक पहुँचा था पानी?


हर कोई अपने अनुसार बताने लगा. किसी के परिजन डूबे थे, किसी के पशु. किसी के खेत डूब थे, किसी का घर.




एक बूढा पास बहती टोंस को देख रहा था. मैं उसके पास पहुँचा और पूछा,


आपका क्या बहा बाबा ?


मेरे हाथ में बिस्किट का पैकिट देख, वह बोला, भूख !



मेरे हाथ खुद ही आगे बढ गये.




पर मैंने फिर पूछा, आपका क्या क्या बहा बाबा ? आज जब सोचता हूँ तो अपने को मूर्ख पाता हूँ. पहले एक क्या था फिर दो हो गये, क्या क्या?



पर उत्तर तो बस एक था, भूख ! वह भी इस बार आँखों से.


तब लौट कर एक कविता शुरू की थी जो पूरी तो नहीं हुयी पर आज जब बाढ़ की चर्चा हुयी तो याद आयी,


“कैसे कह दूँ, बाढ़ में मेरा सब कुछ बह गया,

मेरे पास तो बस भूख थी.”



रविवार, 6 सितंबर 2009

आशाओं का द्वीप

मुम्बई 1 सितम्बर 2009
याह्या खां. नाम सुनते ही हमें याद आता है पाकिस्तान का तानाशाह जिसने पूर्वी पाकिस्तान में अत्याचार किये और जो बंग्लादेश के जन्म का कारण बना. लेकिन आज हम उस याह्या खां की बात नहीं कर रहे.
मुम्बई हवाई अड्डे पर उतर कर टैक्सी के लिये बाहर आया तो पच्चीस छ्ब्बीस साल का एक ड्राईवर मेरी ओर लपका और मेरा सामान थाम लिया. मैं उसकी टैक्सी में बैठा और चल दिया.
मैंने उसका नाम पूछा,
याह्या खां, सर !
वह अधिकतर टैक्सी ड्राईवरस् की तरह पूर्वी उत्तर प्रदेश का है. इलाहाबाद के पास का. दस साल से यहाँ रहता है.
कौन कौन रहता है यहाँ ?
अकेला रहता हूँ, सर. बाकी सब लोग गाँव में रहते हैं.
कौन कौन है घर में ?
दादी हैं, माँ हैं, एक छोटा भाई और दो छोटी बहन हैं.
पिछ्ले साल याह्या के पिता का इंतकाल हो गया. तब तक वो और उसके पिता दोनो मुम्बई में रहते थे. लेकिन अब वो अकेला रह गया. दादा को तो उसने देखा भी नहीं था. पिता भी पूरे घर की जिम्मेदारी उस पर छोड कर चल दिये.
भाई बहन गाँव में पढते हैं. याह्या हाईस्कूल तक पढा और फिर मुम्बई आ गया. सभी तो उसके गाँव से यहीँ आते हैँ.
अकेला है तो क्या हुआ, वो पूरी शिद्द्त से पूरे रोजे रखता है. अभी अभी इफ्तार के बाद टैक्सी लेकर आया है. वो रात भर टैक्सी चलायेगा. उसे इसका तीन सौ रुपया किराया देना होता है. याह्या दिन में एक मेडीकल स्टोर पर भी काम करता है.
अरे भैया! सोते कब हो ?
बस, सवारी का इंतजार करते करते सो लेता हूँ, सर !
याह्या ! रमजान पर घर नहीं गये? ईद पर जाओगे ?
नहीं सर ! दिसम्बर में जाऊँगा.
अभी क्यों नहीं. इतना बडा त्योहार है. घर पर सब तुम्हारा इंतजार करेंगे.
पर सर, मुझे पैसा इकठ्ठा करना है, बहन की शादी करनी है. ईद पर सब घर जाते हैं, टैक्सी की बडी किल्लत रहती है. ऐसे में आमदनी अच्छी हो जाती है. इसलिये मैं घर नहीं जाउंगा.
आजकल मुम्बई में गणेश उत्सव और रमजान की धूम है. हर मोड पर होर्डिंग से तरह तरह के नेता जनता को शुभेच्छा देते झाँक रहे हैं.
आजकल मुम्बई में बडी रौनक है. कैसा लगता है?
अच्छा तो लगता है सर ! पर अपने इलाहाबाद बाली बात नहीं है. सिविल लाईंस का दशहरा कितना सुंदर रहता है. वैसे एक बात कहूँ सर, मुझे हिन्दुओं के त्योहारों में रक्षाबंधन सबसे अच्छा लगता है. कितना प्यारा त्योहार है. जब तक मैं गाँव में था , बहनों से राखी बंधाता था.
गणेश पंडालों के बाहर भीड है, जगह जगह जाम लगे हैं. पर गंत्व्य आ गया.
बाहर बारिश हो रही है पर मुझे भिगो रही हैं याह्या की गीली आँखे.

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

आपकी कॉफी के प्याले में क्या है?

मथुरा 26 अगस्त 09 आज पता लगा कि हम जो कॉफी पीते हैं बहुत चाव से, उसमें एक बडी मात्रा एक चिकोरी नामक जड़ की होती है. कॉफी के नाम पर कुछ अजीब सी चीज.
आज एक सज्जन से भेंट हुयी जो अपने खेत में चिकोरी उगाते हैं, बड़ी बड़ी कॉफी निर्माता कम्पनियों के लिये.

चिकोरी एक एक जंगली बारहमासी जड़ीबूटी है जो यूरोप में सडक के किनारे पर एक जंगली पौधे के रूप में होती थी और बाद में इसकी खेती की जाने लगी. इस पौधे की जड़ लंबी और मोटी होती हैं, पतली पतली मूली जैसी. इस पर बहुत सुंदर बैंजनी रंग के फूल आते हैं जो प्रति दिन ठीक एक समय पर खिलते और बंद होते हैं. पत्ते भी लगभग मूली जैसे होते हैं. नयी पत्तियों को सलाद में इस्तेमाल किया जा सकता है और जड़ को उबला कर सब्जी की तरह खाया जा सकता है.

पर इसकी जड़ कॉफी कैसे बन जाती है ? इन जडों को पहले गोल गो काट कर सुखाया जाता है. सूखने पर इन्हें भूना जाता है और फिर पीसा जाता है. और कॉफी तैयार.

बताते हैं कि पूर्व में जब कभी कॉफी अनुपलब्ध हुयी या महंगी हो गयी तो लोगों ने चिकोरी को एक विकल्प के रूप प्रयोग किया. कहते हैं कि इसमें कैफीन नहीं होती और यह कॉफी से अधिक कसैला स्वाद पैदा करती है.

विकल्प तक तो ठीक पर कई उत्पादक आपकी कॉफी में 30% तक चिकोरी मिला देते हैं. हमने सोचा कि ये तो धोखा हुआ पर घर आकर कॉफी के डिब्बे का लेबल देखा तो पाया कि उसमें 30% चिकोरी है. पर ये उत्पादक यह बात प्रचारित नहीं करते और कॉफी के दाम में चिकोरी पिला देते हैं.