लखनऊ, 4 नवम्बर 09
उस नीतिवाक्य की माने तो आलसी को विद्या कहाँ ? उधर चाणक्य महोदय भी कह गये हैं कि आलस्य मनुष्य के लिये स्वाभाविक तो है पर आलसी की प्राप्त की गयी विद्या नष्ट हो जाती है.
पर यहाँ एक ब्लागर हैं जो स्वयम को आलसी कहते हैं और अपने इस स्वघोषित गुण को बार बार बताते अघाते भी नहीं.
इस आलसी से मेरा परिचय लगभग एक दशक पूर्व हुआ. मैं पहिले वाराणसी पहुँच चुका था और महोदय कुछ दिन बाद आये. बड़ा अंतर्मुखी जीव लगा मुझे. पर अगले कई वर्ष साथ काम करते करते पता चला वो अंतर्मुखी नहीं, अल्पभाषी था. हलांकि, अब यह भ्रम भी टूट गया है, वो अल्पभाषी भी नहीं, उसके तरकस में तो भाषा के अनगिनित तीर हैं, हाँ! ये कलम से फूटते हैं, मुख से नहीं.
तो, जब महोदय वाराणसी पहुँचे तो हम उनसे मिलने पहुँचे. परिवार से परिचय हुआ, बातचीत हुयी, चाय पीयी और चलने लगे. अब ये महोदय, जिद करने लगे भोजन करके जाइये. हम समझाते रहे, अरे भाई, अभी सब अस्त व्यस्त है, जम जाओ, फिर किसी दिन आयेगे. महोदय कहने लगे अरे अपने लिये तो खिचडी बनेगी ही, वही खाके जाइये. अंत में मान तो गये पर इस प्रकरण से हमारा उन्हें जान गये. हमारी तरह गंवई आदमी जिसका सभ्याचार कहता है कि जब कोई आये तो खिलाये बिना न भेजो. जाना ये भी कि औपचारिकता से दूर है ये प्राणी (उसके ब्लागानुसार, लंठ).
हम वाराणसी में लगभग गंगा तट पर रहते थे और कितनी ही बार साथ साथ गंगा स्नान किया और उसके बहाने तरह तरह का ज्ञान विनिमय भी. एक बार कहीं साथ साथ जाते में उसकी एक पर्त और खुली, उसे कविता की कोई किताब पढते देखा. ऐसे ही कई वर्ष बीत गये और हमारा स्थानांतरण हो गया. कुछ वर्ष बाद लखनऊ में फिर मिले. यहाँ हमने सोचा काम तो हम दिन रात करते हैं, क्यों न एक ऐसा मंच बनाये जहाँ हम काम के अलावा कुछ भी बात करें. कहते हैं ये, बेस्ट एचाआर प्रेक्टिस होती है, जिससे कर्मचारी पुनर्जीवित होते हैं. नाम रखा, फोरम. दिन तय हुआ और पहला वक्ता भी. लेकिन तय दिन पर वक्ता कहीं व्यस्त हो गये, कम्बख्त काम पीछा नहीं छोडता. अब किसे तलाशे ! सोचा, इन महोदय को कहते हैं. महोदय, एक उत्कृष्ठ सिविल इंजीनियर हैं तो मेरी अपेक्षा रही कि वे बतायेगे कि कैसे बनते हैं कंक्रीट के जंगल. पर, मैंने मा ते संगोस्त्वकर्मणि (आलस के विरुद्ध) का ज्ञान दिया और मंच महोदय के हाथ में. तब मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब महोदय ने अपनी एक और पर्त खोली. उन्होंने विषय चुना था, फैज अहमद फैज की नज्म, मुझसे पहले सी मुहब्ब्त मेरे महबूब न मांग. फिर तो कविता की पर्त दर पर्त खुलती रही और उनकी भी. जिसे सब प्रेम का गीत माने बैठे थे वो बुद्ध के रास्ते समाजवाद का नारा लगने लगा.
फिर एक दिन उनके ब्लाग का पता चला और ब्लाग का नाम देखते ही सोचा, सही कहते मनोवैज्ञानिक, चेहरे पर चेहरे लगा के घूमते हैं लोग, मल्टी पर्सनलिटी सिंड्रोम ! महोदय अपने को आलसी कहते हैं या कहूँ आलसी समझते हैं पर कथा, कविता, निबन्ध, रिपोर्ट क्या क्या नहीं लिखते, और सब की सब ऐसी कि सहब्लागरस कहाँ उठते हैं, हाय इस आलसी के ऐसे आलस पर कुर्बान.
महोदय ने अलसस्य कुतो विद्या को झुठला दिया है, इनके उदाहरण से तो होना चाहिये, अलसस्य सदा विद्या. उधर चाणक्य महोदय को भी ये धता बता रहे हैं, इन्हें देख वे कहते आलसी की प्राप्त की गयी विद्या दिन दूनी रात चौगुनी ( या और भी ज्यादा क्योंकि इनकी अधिकांश पोस्ट या तो रात में होती हैं या बिल्कुल भोर में ) बढ्ती जाती है.
तो भैया ! आज आलस्य न करो, और जन्मदिन की ढेर बधाई स्वीकार करो.
{आप चाहें यहाँ टिप्पणी करें या आलसी जी (उन्हें पहचानना मुश्किल तो नहीं) के ब्लाग पर, पर उन्हें जन्मदिन की बधाई देने में आलस न करें}