हल्द्वानी 14 सितम्बर 09
एक हजार साल ! किसी भी दृष्टि से ये एक लंबा समय होता है. इस अवधि में भारत ने भारतीय कला और विद्या की पराकाष्ठा देखी और उसका पतन भी. तंजावुर के सुंदर मंदिर या नालंदा का विशाल विश्वविद्यालय सभी कुछ पिछ्ली सहस्राब्दि के प्रार्ंम्भ में हो रहा था.
लेकिन आज तो हम उस सहस्राब्दि के प्रार्ंम्भ में जन्मी एक जीवंत संस्था की बात कर रहे हैं. ये है हिन्दी. अमीर खुसरो के समय तक हिन्दी विकसित हो चुकी थी और वे इसके पहले ब्रांड एंबेसडर कहे जा सकते हैं. उन्होंने कहा था, “मैं हिंदी की तूती हूँ, तुम्हें मुझसे कुछ पूछना हो तो हिंदी में पूछो, तब मैं तुम्हें सब कुछ बता दूँगा।” लेकिन एक हजार साल बाद भी खुसरो की तूती, नक्करखाने में तूती की आवाज जैसी लगती है.
हिन्दी दुनियाँ में दूसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है जिसे लगभग पचास करोड लोग बोलते हैं जो स्वयम भारत व चीन को छोड्कर किसी भी देश की जनसंख्या से कई गुना ज्यादा है. दूसरी ओर इस महादेश के केवल पाँच सात करोड लोग ही अंग्रेजी बोलते समझते हैं, इससे अधिक लोग तो बंग्ला, तेलगू, मराठी, तमिल बोलते हैं. साथ ही अंग्रेजी वे अपनी दूसरी भाषा के रूप में बोलते हैं, और उसकी गुणवत्ता की बात न करें तो बेहतर. अर्थ यह भी कि जब ये लोग अंग्रेजी बोलते हैं तो वे अपने को सीमित करते हैं.
तो फिर दिक्कत क्या है ? दिक्कत तो हमारे मन में है.
बार बार ये बताने का कोई लाभ नहीं कि किस तरह चीन जैसे विशाल और इजराएल जैसे छोटे देश में अपनी भाषा स्थापित हो गयी. हम तो बस इतने में खुश हो जाते हैं कि हमने चीन को पश्चिम की ओर माइग्रेशन में इसलिये पछाड दिया क्योंकि हमारे लोगों की अंग्रेजी अच्छी है. लेकिन ये एक भ्रम है, अंग्रेजी कुछ लोगों को नौकरी पाने का साधन तो हो सकती है, पर मेरे और तेरे बीच के संवाद की भाषा नहीं. उसके लिये वही भाषा काम आती है जिसमें हम सोचते हैं.
तो क्या हम ये कह रहे हैं कि अंग्रेजी बाय बाय. नहीं, बिल्कुल नहीं. आप जानते हैं, आजकल हमारे देश के ढेर सारे बच्चे पढने रूस और चीन जाते हैं. और ये दोनों ही देश अंग्रेजी में तो पढाने से रहे ( हांलाकि चीन में अब कुछ कालेज अंग्रेजी माध्यम का विकल्प रखते हैं). तब कैसे पढते और रहते हैं ये बच्चे ? जब वे इस तरह के गैर अंग्रेजी देशों में पहुँचते हैं तो पहले कुछ महिने इन्हें वहाँ की भाषा सिखाई जाती है और फिर शुरू होती है उनकी असली पढाई. इस के दो अर्थ हैं, एक, जब रूसी और मेंडारिन में तकनीकी शिक्षा हो सकती है तो हिन्दी या फिर किसी अन्य भारतीय भाषा में क्यों नहीं ? दो, जब लोग जरूरत पडने पर रूसी और मेंडारिन और न जाने कैसी कैसी कठिन भाषायें कुछ ही समय में सीख लेते हैं तो जब जिसे जरूरत हो अंग्रेजी सीख ले, उसे अनिवार्य रूप से पढाने,थोपने की आवश्यकता क्यों?
हिन्दी भावना के अतिरिक्त बाजारवाद की जरूरत भी है. इस देश की हिन्दी बोलने वाली जनसंख्या में पच्चीस आस्ट्रेलिया समा सकते हैं. ये बहुत बडा बाजार है, इससे संवाद, इसकी अपनी भाषा में हो तो ही इसका दोहन होगा. हाँलाकि ये बात अब सबकी समझ में आ रही है तभी तो दुनियाँ भर की कम्पनियाँ हिन्दीभाषी लोगों के लिये उत्पाद बना रही हैं, हिन्दी में विज्ञापन बना रही हैं और हिन्दी धारावाहिकों को प्रायोजित कर रही हैं.
त्योहरों के इस देश में, हमने हिन्दी दिवस को भी एक त्योहार बना दिया है. त्योहार मनाइये और गणपति बप्पा... की तर्ज पर कहिये हिन्दी दिवस मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ. और इस बार का हिन्दी दिवस तो खास है, इस बार ये सठिया गया है. कहा जाता है कि साठ वर्ष या इससे अधिक का हो जाने पर मानसिक शक्तियों के क्षीण हो जाने के कारण ठीक तरह से काम-धंधा करने या सोचने-समझने के योग्य नहीं रहते । लेकिन खुश खबर यह है कि हिन्दी के साथ ऐसा नहीं हो रहा.
व्यवस्था की असंवेदनशीलता जो केवल ये आँकडे जुटाने में व्यस्त रहता है कि किसने कितने पत्र हिन्दी में लिखे, के बाबजूद हिन्दी अपना दायरा बढा रही है. आप नेट पर जाइये, अनगिनित हिन्दी ब्लाग्स से सामना होगा. आज करोड़ों की संख्या में हिन्दी अखबार छप रहे और रीडरशिप में अंग्रेजी अखबारों को पीछे छोड रहे हैं. हिन्दी के टीवी चैनल चैन्नई में भी दर्शकों को सम्मोहित कर रहे हैं, हर गृहणी को चिंता है कि कल टीवी बहुओं का क्या होगा ? हिन्दी समाचार चैनलों पर आंध्र के दर्शक भी अपनी टिप्पणी हिन्दी में देते दिख जायेंगे.
सार यह कि हिन्दी को तो कल अपना स्थान पाना ही है, बात बस समय की है. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने हिन्दी के विषय में कहा था कि हिंदी की स्वाभाविक उर्वरता नहीं मर सकती, वहाँ खेती के सुदिन आएँगे और पौष मास में नवान्न उत्सव होगा।
हमें उस पौष की प्रतीक्षा है.
कभी "ओलार" कभी "दाबू"
1 वर्ष पहले
हिन्दी हमे बचाना है।
जवाब देंहटाएंhttp://hindisahityamanch.blogspot.com
http://mithileshdubey.blogspot.com
बिलकुल सही कहा आपने हिन्दी को तो आना ही है |हमारी व्यवस्था मे ही कहीं द्रढिच्छा शक्ति की कमी है कुछ पाश्चात्य सभ्याता की तरफ लोगोम के झुकाव के कारण अवरोध पैदा हो रहे हैं कामना करते हैं जल्दी ही लोगों को होश आ जये तो अच्छा है जै हिन्दी जै हिन्द्
जवाब देंहटाएंसब कुछ समर्पित भाव से करने की आवश्यकता है । हिन्दी का भविष्य हम सभी के हाँथों में है । हमें प्राण-प्रण से सजग होकर लगना होगा । हिन्दी का भविष्य उज्वल हो !
जवाब देंहटाएंभारत की एक समस्या यह भी है कि अहिन्दी भाषियों से हिन्दी अंग्रेजी के स्थान पर कैसे स्वीकार कराई जाय। सम्भवत: मैं ग़लत लिख गया, होना चाहिए 'वे कैसे स्वीकार करें'?
जवाब देंहटाएंएक रास्ता बहुत पहले से बताया जाता रहा है कि हिन्दी भाषियों को कम से कम एक दूसरी भारतीय भाषा सीखनी चाहिए। हिन्दी वाले हिन्दी सीखने को ही तैयार नहीं हैं, दूसरी भारतीय भाषा क्या सीखेंगे?
अंग्रेजी छोड़ने को न तो उत्तर तैयार है और न दक्षिण। तो क्या हमारे बच्चे तीन तीन भाषाएं सीखेंगे? संस्कृत का क्या होगा? उर्दू वाले अलग ढपली लेकर बजाते रहे हैं और आगे भी बजाएँगे। समाधान क्या हो?
रही बात बाज़ार की तो वह तो हर भारतीय भाषा में अपने को ढाल रहा है, हिन्दी कोई विशिष्ट नहीं है - सिवाय इसके कि संख्या बल के कारण कुछ अलग से advantage हैं।
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आज के दिन मैं कुछ अधिक ही निराश हो रहा हूँ लेकिन क्या करिएगा? नई पीढ़ी न तो 'पौष' जानती है और न ही 'नवान्न' का सन्धि विग्रह या जनित अर्थ !
बहुत सम्यक विचार किया है। हिन्दी के लिये ऐसे ही तर्कपूर्ण अन्तर्दृष्टि की जरूरत है तथा पूरे उत्साह एवं मनोयोग से लगातार काम करने की जरूरत है।
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