मंगलवार, 8 सितंबर 2009

मेरे पास बस भूख थी




 
लखनऊ 7 सितम्बर 09

बडी अद्भुत माया है प्रकृति की. कल तक तो सूखा सूखा का प्रलाप था और अब सुनते हैं कि बाढ़ आ रही है. निकटवर्ती घाघरा / सरयू की बाढ़ प्रलयकारी हो रही है. बाढ़ राहत कार्य शुरू हो गये हैं. पर समाचार बताते हैं कि राहत से कोई राहत नहीं हैं. कितना त्रासद है.


हे राम !    पर इसी सरयू ने तो राम को भी अपने में समाहित कर लिया था.


इस समाचार ने मुझे लगभग दस साल पहले की याद दिला दी. मैं तब इलाहाबाद में था और बाढ़ आयी थी. पर ये न गंगा में थी और न यमुना में. सरस्वती तो बहती ही नहीं, बढेगी कहाँ से. ये बाढ़ थी, टोंस में. इलाहाबाद की बात होती है तो हमें गंगा, यमुना, सरस्वती ही याद आती हैं पर पूरा क्षेत्र छोटी छोटी नदियों से भरा है. एक नदी का नाम मुझे याद आता है, ससुर खदेरी, स्त्रियाँ तो स्त्रियाँ, नदी भी सास ससुर की सताई हुयी? पर इस परित्यक्ता की बात फिर कभी.

टोंस इलाहबाद के दक्षिण में यमुना पार बहती है. विन्ध्य पर्वत से निकली ये नदी यूँ तो अपनी इलाहाबादी भगिनियों के सामने बहुत छोटी है पर अपनी छोटी छोटी बहनों के साथ प्रचीन सभ्यता की कुंजिया समेटे हुये है.


तो, टोंस में बाढ़ आ गयी. घर द्वार खेत सडक सब बहा ले गयी. मंत्रीजी की ओर से बाढ़ राहत की बात हुयी और पूरा अमला चल पडा.




स्थिति सचमुच त्रासद थी. वाहन चलने को सडक न थी. पहिये धंसे जाते थे. कई कारें रास्ते में ही साथ छोड गईं.


साथ चल रहे क्षेत्रीय अधिकारी ने काफिला एक जगह रोका, कहने लगे यहाँ एक गाँव था. पूरा का पूरा बह गया. पेड पर टंगे भूसे चारे के कण बता रहे थे कि पानी ने पेड पर चढने की सफल कोशिश की थी.



फिर वह अब गाँव कहाँ है?


क्षेत्रीय अधिकारी बोले, कुछ दूर, हमने ऊँची जगह पर कैम्प लगाये हैं. वहीं है गाँव. लेकिन कार न जा पायेगी. पैदल जाना होगा. आधे लोगों की बाढ़ सफारी यहीं समाप्त हो गयी.


कुछ लोग घुटनों घुटनों कीचड में चल कर कैम्प गाँव में पहुँचे. कैसा कैम्प है ये! लोगों को नीली पन्नी दे दी गयी है और उन्होंने खाट खडी कर उसे बांध लिया है. यही है सरकारी कैम्प. सचमुच लोगों की खाट खडी है.



पहुँचे तो पुरुष और बच्चे हमें घेर कर खडे हो गये. सरकार ने पन्नी के साथ सत्तू भी दिया है, स्त्रियाँ उसे घोल रही हैं. कुछ गीली लकडी को जलाने का यत्न कर रही हैं पर जल आग पर भारी है.




मंत्री महोदय ग्रामीणों से बात करने लगे.


कहाँ तक पहुँचा था पानी?


हर कोई अपने अनुसार बताने लगा. किसी के परिजन डूबे थे, किसी के पशु. किसी के खेत डूब थे, किसी का घर.




एक बूढा पास बहती टोंस को देख रहा था. मैं उसके पास पहुँचा और पूछा,


आपका क्या बहा बाबा ?


मेरे हाथ में बिस्किट का पैकिट देख, वह बोला, भूख !



मेरे हाथ खुद ही आगे बढ गये.




पर मैंने फिर पूछा, आपका क्या क्या बहा बाबा ? आज जब सोचता हूँ तो अपने को मूर्ख पाता हूँ. पहले एक क्या था फिर दो हो गये, क्या क्या?



पर उत्तर तो बस एक था, भूख ! वह भी इस बार आँखों से.


तब लौट कर एक कविता शुरू की थी जो पूरी तो नहीं हुयी पर आज जब बाढ़ की चर्चा हुयी तो याद आयी,


“कैसे कह दूँ, बाढ़ में मेरा सब कुछ बह गया,

मेरे पास तो बस भूख थी.”



11 टिप्‍पणियां:

  1. मार्मिक प्रसंग है इतनी असमानता कि एक के घर मे हैलीपैड बन रहा है और एक भूख ए बिलबिला रहा है सिर्फ एक रोटी के लिये । मन भीग आता है ये सब देख कर । बहुत अच्छा लिखते हैं आप आभार्

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  2. इतनी संजीदगी से लिखी पोस्ट कि मन भर आया । संवेदना की व्यापकता देख रहा हूँ । बेहतर प्रविष्टि । आभार ।

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  3. भाव से परिपुर्ण लाजवाब मार्मिक रचना।

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  4. बहुत मार्मिक अभिव्‍यक्ति .. ईश्‍वर इतने निर्दयी क्‍यूं हो जाते हैं ?

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  5. इश्वर के बारे में बड़ी दुर्भावना है . इश्वर किसी थाने का दरोगा नहीं है . इन्सान अपना हिसाब किताब खुद लिखता है

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  6. क्या कहूँ..कोई कविता होती तो बेहतरीन कहता..या चुटकुला होता तो कहता बहुत खूब..यह तो नग्न हकीकत है बस..
    इतना ही कहूँगा कि आप जैसे बहुत कम ब्लॉग्स हैं जहाँ सच्चाई से रूबरू होने का मौका मिलता है..वरना को अपनी हकीकत पर मल्टीप्लेक्सीय रूमानी फ़तांसी भारी पड़ती है
    ..कृपया ऐसे ही सच का सामना कराते रहें.

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  7. बहुत ही मार्मिक त्रासद है यह……………………!!!!!!

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  8. इलाहाबाद में जहां टोंस नदी गंंगाजी में मिलती है उसी के एक किलोमीटर आगे गंगा किनारे मेरा गांव है उपरौड़ा. गांव तो ऊंचे टीले पर है लेकिन गंगाजी के बढऩे पर अक्सर पूरा कछार डूब जाता है. कार के किनारे एक दलित बस्ती थी. वो भी डूब जाती थी और वहां रह जाती थी वही भूख और लाचारी. हर जगह ऐसी ही कहानी है.

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  10. बहुत मार्मिक अभिव्‍यक्ति .. ईश्‍वर इतने निर्दयी क्‍यूं हो जाते हैं
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