रविवार, 3 जनवरी 2010

मात्र रासो रचो तुम


व्यंग भरे अभिनय उन्हें भाते नहीं
मात्र मुजरा करो तुम
उनके हुजूर में
प्रति दिन झुका करो तुम



शब्द का प्रश्न के लिये प्रयोग
अब होगा नहीं मात्र रासो रचो तुम

सत्य का प्रचार पाप है जब
सत्य से प्यार है तुम्हें
फिर ये चीत्कार क्यूँ
संगसार सहो तुम

आग खून आह आँसू
प्यास भूख औ जलन
ये क्या चित्र बना दिया तुमने
मात्र सुंदर दिखो तुम

सांस लेने पर रोक तो नहीं
न रोने पर कोई प्रतिबंध
फिर किस बात की शिकायत
वो क्या करें,
ये नियति का विषय है
जियो या मरो तुम

 
* यह लिखा था मैंने बीस साल पहले जब 2 जनवरी 1989 को प्रख्यात रंगकर्मी सफदर हाशमी को मार दिया था कुछ ऐसे लोगों ने जिन्हें सच तो आता ही नहीं, नहीं आता सच को सहना और देखना भी.

12 टिप्‍पणियां:

  1. व्यवस्था के खिलाफ बोलना हमेशा दुस्साहस जैसा होता है. व्यवस्था पर काबिज लोगों को अपनी सत्ता खतरे में जो लगती है. सफदर हाशमी को श्रद्धांजली.

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  2. सत्य से प्यार की कीमत चुकानी ही पड़ती है. श्रद्धांजलि.

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  3. सफदर हाशमी को श्रृद्धांजलि!!

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  4. is kalyug mein 'Sach bolne walon ka yahi anjaam hua hai...

    Safdar hashmi ji ko shradhanjali.

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  5. "शब्द का प्रश्न के लिये प्रयोग
    अब होगा नहीं मात्र रासो रचो तुम"..

    आक्रोश और आह घुल मिल गये हैं इस रचना में । प्रस्तुति का आभार !

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  6. नियति की अच्छी कही।
    नीयत भी ध्यान में आती है।
    याद आता है 'सहमत'द्वारा अयोध्या आन्दोलन के समय जातक कथाओं का आश्रय ले जन भावना का मजाक उड़ाना।
    रासो काव्य के कई प्रकार होते हैं।
    सफदर के सन्दर्भों से अलगाने पर भी कविता तमाम बातें कह जाती है जो सोच में डालती हैं.... आभार।

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  7. सच कहूँ तो २० साल बाद भी यह कविता उतनी ही प्रासंगिक और प्रभावी है..और दूसरे पक्ष को सुने बिना अपना फ़ैसला देने की हमारी असहिष्णुता की द्योतक...सफ़दर बस एक बहाना हैं..
    आश्चर्य नही कि हमारा अधिकांश इतिहास रासो व कसीदः के पन्नों मे जकड़ा रहा..और अब भी हम अपने अतीत की प्रामाणिकता के लिये पश्चिम के मोहर की बाट जोहते हैं..

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  8. @गिरिजेश, आपके सहमत के संदर्भ से सहमत हूँ, पर मूल प्रश्न अभिव्यक्ति की आजादी का है, इससे आप सहमत होंगे.

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  9. सांस लेने पर रोक तो नहीं
    न रोने पर कोई प्रतिबंध
    फिर किस बात की शिकायत
    वो क्या करें,
    ये नियति का विषय है
    जियो या मरो तुम
    कितनी सच्ची और साहस से लबरेज़ पंक्तियां हैं ये. कविता आज भी प्रासंगिक है, सामयिक है. मतलब बीस साल बाद भी कुछ नहीं बदला.

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  10. सांस लेने पर रोक तो नहीं
    न रोने पर कोई प्रतिबंध
    फिर किस बात की शिकायत
    वो क्या करें,
    ये नियति का विषय है
    जियो या मरो तुम
    " very effective and nice expressions"

    regards

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  11. सांस लेने पर रोक तो नहीं
    न रोने पर कोई प्रतिबंध
    फिर किस बात की शिकायत
    वो क्या करें ....

    बहुत प्रभावी ....... कभी कभी शब्द बहुत कुछ कह जाते हैं ...........

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