सोमवार, 21 दिसंबर 2009

जस काशी तस मगहर

मगहर 11 दिसम्बर 09

गोरखपुर से लौटते हुये मगहर जाने की सोची. एक सोता हुआ कस्बा. कस्बे के एक छोर पर बहती है नदी आमी. कहाँ काशी की प्रतिष्ठा और कहाँ मगहर का अपयश. कहते हैं मगहर बना है मार्ग हर अर्थात मार्ग में लूटने वाले से. कहाँ पुनीत गंगा और कहाँ आमी के जल की एक पतली रेखा. फिर भी कबीर ने कहा, जस काशी तस मगहर. क्यों? कबीर ने विदा होते होते भी एक बड़ा संदेश दिया, जगह महत्वपूर्ण नहीं होती, महत्व तो आचार का है, कर्म का है. कहने को तो कबीर यह बात अपने कवित्त में भी कह सकते थे पर उन्होंने वह किया जिसे उदाहरण द्वारा नेतृत्व कहते हैं.

मगहर में कबीर धाम एक रमणीक स्थान है, नदी के किनारे और पेड़ो से आच्छादित. निर्गुण संतो की विशेषता है कि उन्हें किसी धर्म से जोड़ कर नहीं देखा जाता. यहाँ एक ओर कबीर की मजार है और दूसरी ओर उनकी समाधि. दोनों छोटे छोटे सफेद भवन पर पूरा वातावरण पवित्र लगता है. समाधि पर तीर्थ यात्रियों का एक जत्था आया है, ढ़पली पर थाप और मंजीरों की झनकार के बीच कबीर के दोहे और साखियां गायी जा रही हैं. लग रहा है कबीर और उनके साथी रैदास, सेना, पीपा बैठे हैं और भक्ति का रस बह रहा है;

झीनी झीनी बीनी चदरिया
.................. दास कबीर जतन तें ओढ़ी
ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया

प्रांगड़ में घूमते घूमते एक छोटी लड़की मिली, राधिका.
मैंने पूछा, “कहाँ रहती हो”
राधिका बोली, “यहीं पास में”. बड़ी बातून लग रही है, खुद ही बताने लगी, “मां बाप नहीं हैं. दादी के साथ रहती हूँ. कबीरपंथियों द्वारा चलाये जाने वाले स्कूल में पढ़ती हूँ. कक्षा सात में”.
मैंने पूछा, “रोज आती हो यहाँ”
“हाँ. पूजा करने. हम कबीरपंथी हैं, न!”
मैंनें छेड़ा, “मजार पर जाती हो या समाधि पर”

कितनी मोहक मुस्कान है उसकी, बोली, “आपको पता है, यहाँ मजार और समाधि दोनों क्यों हैं?”
मैंने पढ़ी तो थी कहानी बचपन में पर उसे बढ़ावा दिया. वो बताने लगी, “कबीर ने जब देह त्याही तो उनके शिष्यों में अन्तिम संस्कार को लेकर झगड़ा होने लगा. हिन्दू चाहते थे कि कबीर का शरीर जलाया जाए और मुसलामान उसे दफनाना चाहते थे. पर जब चादर हटी तो शरीर की जगह उन्हें कुछ फूल मिले. आधे आधे फूल बांटकर हिन्दुओं ने एक ओर समाधि बना ली और मुसलमानों ने एक ओर मजार”

राधिका के सिर पर हाथ फेरा और चल दिया. कुछ ही देर में घाघरा/सरुयू का विस्तार दिखा, मैं अयोध्या से गुजर रहा था. मगहर से एक कैसिट ली थी, वह कार में बज रही है,

मोको कहाँ ढ़ूंढ़े रे बंदे, मैं तो तेरे पास में
ना मैं देवल, ना मस्जिद, ना काबे कैलास में..







पुनश्च: आज कल यहाँ वहाँ पढ़ रहा हूँ, कुछ लोग ब्लागिंग से विदा ले रहे हैं, किसी आलोचना के कारण. कबीर विद्रोही कवि थे जिसको विरोध सहने पड़े अपने लेखन के लिये. लेकिन उन्होंने लिखना नहीं छोड़ा.

8 टिप्‍पणियां:

  1. सामाजिक सौहार्द का उदाहरण है कबीर धाम, परंतु समाज और सरकार से उचित प्रोत्साहन नही है

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  2. लाल रंग में लिखी बात कितनी महत्वपूर्ण कही आपने !
    लेखनी के लोक में आलोक लाने के लिये हमें विरोध तो सहने ही होंगे, और बिना विचलन के अपने इस पुण्य-कर्म में प्रवृत्त रहना ही होगा !

    प्रविष्टि ने कबीर के मंतव्यों की झलक दी । आभार ।

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  3. अच्छा लेख।
    राधिका ने वही बात कही जो हम जानते हैं
    मगर यह बात अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है कि इसे हम वयस्कों ने नहीं
    राधिका ने कही।
    यह कबीर का प्रताप है कि आज भी यह बात राधिका कह रही है
    मोको कहाँ ढ़ूंढ़े रे बंदे, मैं तो तेरे पास में
    ना मैं देवल, ना मस्जिद, ना काबे कैलास में..
    -धन्यवाद।

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  4. Lekh bahut hi aacha laga. NAV WARSH KI HARDIK SHUBHKAMNAY.

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  5. Maghar ke bare mein janaa aur chitr pahli bar dekhe.
    --Post ke Akhir mein bahut achchee baat likhi hai .
    Abhaar,

    NavVarsh ki shubhkamnayen

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  6. आपने मगहर धाम के बारे में इतनी अच्‍छी जानकारी प्रदान की इस हेतु आपका बहुत बहुत धन्‍यवाद

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