सोमवार, 21 दिसंबर 2009

जस काशी तस मगहर

मगहर 11 दिसम्बर 09

गोरखपुर से लौटते हुये मगहर जाने की सोची. एक सोता हुआ कस्बा. कस्बे के एक छोर पर बहती है नदी आमी. कहाँ काशी की प्रतिष्ठा और कहाँ मगहर का अपयश. कहते हैं मगहर बना है मार्ग हर अर्थात मार्ग में लूटने वाले से. कहाँ पुनीत गंगा और कहाँ आमी के जल की एक पतली रेखा. फिर भी कबीर ने कहा, जस काशी तस मगहर. क्यों? कबीर ने विदा होते होते भी एक बड़ा संदेश दिया, जगह महत्वपूर्ण नहीं होती, महत्व तो आचार का है, कर्म का है. कहने को तो कबीर यह बात अपने कवित्त में भी कह सकते थे पर उन्होंने वह किया जिसे उदाहरण द्वारा नेतृत्व कहते हैं.

मगहर में कबीर धाम एक रमणीक स्थान है, नदी के किनारे और पेड़ो से आच्छादित. निर्गुण संतो की विशेषता है कि उन्हें किसी धर्म से जोड़ कर नहीं देखा जाता. यहाँ एक ओर कबीर की मजार है और दूसरी ओर उनकी समाधि. दोनों छोटे छोटे सफेद भवन पर पूरा वातावरण पवित्र लगता है. समाधि पर तीर्थ यात्रियों का एक जत्था आया है, ढ़पली पर थाप और मंजीरों की झनकार के बीच कबीर के दोहे और साखियां गायी जा रही हैं. लग रहा है कबीर और उनके साथी रैदास, सेना, पीपा बैठे हैं और भक्ति का रस बह रहा है;

झीनी झीनी बीनी चदरिया
.................. दास कबीर जतन तें ओढ़ी
ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया

प्रांगड़ में घूमते घूमते एक छोटी लड़की मिली, राधिका.
मैंने पूछा, “कहाँ रहती हो”
राधिका बोली, “यहीं पास में”. बड़ी बातून लग रही है, खुद ही बताने लगी, “मां बाप नहीं हैं. दादी के साथ रहती हूँ. कबीरपंथियों द्वारा चलाये जाने वाले स्कूल में पढ़ती हूँ. कक्षा सात में”.
मैंने पूछा, “रोज आती हो यहाँ”
“हाँ. पूजा करने. हम कबीरपंथी हैं, न!”
मैंनें छेड़ा, “मजार पर जाती हो या समाधि पर”

कितनी मोहक मुस्कान है उसकी, बोली, “आपको पता है, यहाँ मजार और समाधि दोनों क्यों हैं?”
मैंने पढ़ी तो थी कहानी बचपन में पर उसे बढ़ावा दिया. वो बताने लगी, “कबीर ने जब देह त्याही तो उनके शिष्यों में अन्तिम संस्कार को लेकर झगड़ा होने लगा. हिन्दू चाहते थे कि कबीर का शरीर जलाया जाए और मुसलामान उसे दफनाना चाहते थे. पर जब चादर हटी तो शरीर की जगह उन्हें कुछ फूल मिले. आधे आधे फूल बांटकर हिन्दुओं ने एक ओर समाधि बना ली और मुसलमानों ने एक ओर मजार”

राधिका के सिर पर हाथ फेरा और चल दिया. कुछ ही देर में घाघरा/सरुयू का विस्तार दिखा, मैं अयोध्या से गुजर रहा था. मगहर से एक कैसिट ली थी, वह कार में बज रही है,

मोको कहाँ ढ़ूंढ़े रे बंदे, मैं तो तेरे पास में
ना मैं देवल, ना मस्जिद, ना काबे कैलास में..







पुनश्च: आज कल यहाँ वहाँ पढ़ रहा हूँ, कुछ लोग ब्लागिंग से विदा ले रहे हैं, किसी आलोचना के कारण. कबीर विद्रोही कवि थे जिसको विरोध सहने पड़े अपने लेखन के लिये. लेकिन उन्होंने लिखना नहीं छोड़ा.

शनिवार, 5 दिसंबर 2009

रोपवाकर


Visit blogadda.com to discover Indian blogsहमारा सबसे बडा शत्रु है हमारी सोच. यदि हम पोजिटिव सोच रखें तो हमें अपना लक्ष्य पाने से कोई नहीं रोक सकता. और हमारे मन में यदि नेगेटिविटी ने घर कर लिया तो बस मुश्किल ही मुश्किल.


एक छोटा लड़का था. उसकी चाह थी, साइकिल चलाने की. वह एक दिन उठा, साइकिल उठाई और पेड़लिंग चालू. लेकिन कुछ ही दिन में वह हिम्मत हार गया. वह लोगों से टकराता था, सड़क पर गिरता था और बार बार अपने चोट लगाता था.

उसने सोचा, नहीं ये मेरे बस की बात नहीं. निराश, वो उस रात सो नहीं सका. वह सोचता रहा कि कैसे वह साइकिल चलाना सीखे. तभी उसके मन में एक विचार आया. सड़क के अंत में एक फुटबॉल मैदान है, वह वहाँ जाकर साइकिल सीख सकता है. वहाँ टकराने के लिये लोग नहीं होंगे. अगली सुबह,उसने यह मुहिम शुरू की और मैदान के चक्कर लगाने लगा. अब वह खुश था, कुछ दिनों के बाद, उसे लगने लगा कि वह अब सड़क पर जा सकता है. खुशी से भरा हुआ, वह अपनी साइकिल लेकर सड़क पर जा पहुँचा. लेकिन अफसोस! वह सड़कपर जाते ही एक साइकिल से टकराया और गिर गया. चोट इतनी कि वह अस्पताल ले जाया गया. जब लड़के को होश आया तो उसने अपने पिता को अपने पास पाया, लड़का दु:खी था, बोला, "पापा, मैं साइकिल चलाना नहीं सीख सकता”. पिता ने कहा, "बच्चे ! अभी तुम आराम करो." दो एक दिन में लड़का घर लौट आया. उसके दिमाग में पक्का यकीन था कि साइकिल उसके लिए संभव नहीं है. वह बोला,” पापा, सड़क कितनी पतली हैं और खराब. और लोग इतने जो किसी की चिंता नहीं करते. वे मेरे रास्ते में आ जाते हैं और टकराते हैं. मैं फुटबॉल के मैदान में कितना तेज चलता हूँ. लेकिन जब मैं सड़क पर आता हूँ तो सब कुछ गड़बड़ हो जाता है." लड़का बिल्कुल रुआंसा था.

अगले दिन, उसके पिता उसे शहर में चल रहे सर्कस में ले गये. लड़का बहुत खुश था. उसे जोकरों के चेहरे और नाचते भालुओं को देखकर मज़ा आया. यहाँ एक रस्सी कई फुट उंचे दो खम्भों पर बंधी थी. एक लड़का आराम से रस्सी पर चल रहा था. फिर एक और लड़का आया जो रस्सी पर साइकिल चलाने लगा. छोटा लड़का हैरान था. अब, उसके पिता ने उस से पूछा, "मेरे बेटे ! बताओ, सड़क पर साइकिल के लिये तुम्हें कितनी जगह चाहिये ?" लड़के ने थोड़ी देर सोचा और कहा, "बस रस्सी जितनी" पिता ने कहा, "बेटा! हमें साइकिल चलाने के लिये केवल थोडी सी जगह चाहिये. जब कुछ लोग बिना किसी समस्या के रस्सी पर साइकिल चला सकते हैं तो हम कैसे चौडी सड़कों पर भी टकराते हैं और गिर जाते हैं. बेटा ! यह इसलिए कि हमारे मन की सड़क रस्सी से भी अधिक संकरी है. हम अपने लिए अनजानी सीमाएं और आधार हीन डर बना लेते हैं. इसके अलावा, हम अपनी सीमायें दूसरों पर डाल देते हैं. तो, बेटा ! जाओ, सोचो कि तुम एक रस्सी पर चलने वाले नट हो.

अगली सुबह वह बच्चा निर्भय सड़क पर तेजी से साइकिल चलाने लगा. सीमाओं, भय और पूर्वाग्रहों से अपने मन को मुक्त कर दो और तुमको सब कुछ मिल जाएगा.

गुरुवार, 26 नवंबर 2009

आतंक परिवार हो गया है



मैं घिर गया हूँ हर ओर से आतंक से
लगता है आतंक पहरेदार हो गया है



व्यवस्था बिखरा गई या दरपन में दरार है
तीसरे यह है आतंक सरकार हो गया है


आतंक से दूर कहीं घर द्वार सजाऊँ सोचा
किस शहर में मगर, आतंक संसार हो गया है


जरूर सब कुछ ऐसा ही है, पर सच ये भी है
अब आदत हो गयी है, आतंक परिवार हो गया है

आज 26/11 की बरसी है. ये रचना लगभग 20 साल पहले की है, जब पंजाब आतंक की गिरफ्त में था और लगता था कि अब देश बचेगा नहीं.



लेकिन देश है क्या ! एक भू भाग ! इतिहास में भारत का विचार बदलता रहा है, कभी भारत सप्त सिंधु केंद्रित था तो कभी मगध केंद्रित. भारत के प्राचीन इतिहास के कई स्थान, पुरुषवर, गंधार, मूलस्थान (मुल्तान) जो हमारे गौरव का हिस्सा थे आज पाकिस्तान / अफगानिस्तान का हिस्सा हैं जो हमारी घृणा का केन्द्र्बिन्दु है. इन 20 सालों में कुछ बदला नहीं, सिवा इसके कि पंजाब आतंक के सिकंजे से निकल गया पर और कितने ही क्षेत्र उसके चंगुल में आ गये. आज देश ( या कि दुनियां ) का कोई हिस्सा ऐसा नहीं जो कह सके कि हम आतंक मुक्त हैं.

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

नीबू का पेड


दिल्ली और यूपी भी 6 से 8 नवम्बर 09



बचपन में जब हम अपनी ननिहाल जाते थे तो बरहे ( खेत खनिहान ) में हमारा काफी समय नीबुओं के झुरमुट में बीतता था. वहाँ ठंडा तो रहता ही था, साथ में कच्चे कच्चे नीबू तोडकर, नमक लगा कर खाने में बहुत मजा आता था. याद तो हमें गन्ने के खेत भी आते हैं, हम गन्ने तो तोडकर खाते ही थे, साथ ही सरसों के पत्ते पर ताजा ताजा गुड भी हमें अच्छा लगता था. कपास के खेत भी भूला नहीं हूँ, हम कपास के फाहे इकठ्ठा करते थे जिनसे कभी गोबिन्दा की दुकान से चूरन या लेमनचूस खरीदते थे और कभी उसे घर पे देते थे जहाँ उसे कात कर धागा बना कर स्टेशन के पास विनोबा आश्रम भेज कर खादी के कपडे आते थे. अब न नीबू का वो झुरमुट रहा न कपास के खेत. कल तक हमारे गांव सेल्फ सस्टेंड समाज थे जहाँ अपनी आवश्यकता की वस्तुयें या तो स्वयम उगायी जाती थी या वस्तु विनमय से आती थी. हर कोई अपने खेतों में कुछ फल के पेड लगाते थे, एक खेत में सब्जी उगाते थे, एक में दाल, कहीं थोडी सी ईख लगाते थे और थोडी सी कपास भी. गेहूं के खेत में सरसों की पीली पीली कतार कितना सुंदर दृश्य प्रस्तुत करती थी. भूमंडलीकरण ने गांवो का यह रूप समाप्त कर दिया है.


आज अचानक गांव कैसे याद आया ? आज मैं दिल्ली या यूपी में हूँ ( जिस स्थान पर रुका हूँ वह आधा इधर आधा उधर है ) और मेरे होटल का नाम है, लेमन ट्री. इस नाम को देख मेरे मन में एक आलेख आया, अजब अजब नामों के बारे में. कुछ दिन पहले भी एक होटल में रुका था जिसका नाम था, जिंजर. अंग्रेजी मे व्यवसायिक नाम बडे रोचक होते हैं. एक प्रसिद्ध कम्प्यूटर कम्पनी है जिसका नाम है ऐपल. उधर एक जींस कम्पनी है, बफेलो. ये ही नाम यदि हिन्दी में हों तो, नीबू का पेड, अदरक, सेब, भैंस.


लेकिन, नीबू का पेड सोचते ही गांव याद आ गया. लेकिन गांव अब गांव कहाँ रहे. विकास के नाम पर उनका मनोहारी जीवन दायी रूप बिगड गया. आज गांव शहरों के बिगडे हुये छोटे भाई लगते हैं. कई सालों बाद अपने गांव गया तो मुझे लगा कि मैं कहाँ आ गया. सब कुछ बदला बदला सा. और ये बदलाव प्रगति वाला तो बिल्कुल नहीं था. पालायन की छाया स्पष्ट थी, हर कुछ घर के बाद घरों पर ताले जडे थे. कोई पहचाना चेहरा नजर नहीं आया जबकि पूर्व में कोई भी मिलता था तो पहचान ढूंढ ही लेता था.


लेमन ट्री से लौटा तो सोचा इस बार गांव जाउंगा तो नीबू का एक पेड अवश्य लगाउंगा.

चित्र : मेरे गांव का गूगल सेटलाईट चित्र.  गांव कितने सेल्फ सस्टेंड थे और ईको फ्रेंडली भी इसका उदाहरण उत्तर में बडा पोखर. ऐसे कई पोखर हैं गांव में, जिनमें एक का नाम है रावण वाला पोखरा क्योंकि वहाँ दशहरे का मेला लगता है. ये सब रेन वाटर हार्वेस्टिंग करते रहे हैं. लेकिन ये सब भी अब खत्म हो रहे हैं.   

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

रास्ते आते हैं जहाँ से जाते हैं वहाँ


रास्ते आते हैं जहाँ से
जाते हैं वहाँ


रास्ते बदलने से
गिरने से, संभलने से
बचके निकलने से
होता है कुछ कहाँ
रास्ते आते हैं जहाँ से
जाते हैं वहाँ


रास्ते में नदी होती है
पहाड होते हैं
गांव होते हैं
शहर होते हैं
पडाव होते हैं
पर रास्ते होते हैं
मंजिल कहाँ
रास्ते आते हैं जहाँ से
जाते हैं वहाँ


रास्ते में लोग मिलते हैं
हंसते हैं, बिलखते हैं
फिर मिलने को कह
बिछडते हैं
पर किसी के लिये
रुकते हैं कहाँ
रास्ते आते हैं जहाँ से
जाते हैं वहाँ



चित्र : पिछले दिनों मथुरा में था, जहाँ आज भी जी टी रोड पर दिखती हैं ये कोस मीनार. ये रास्ते पर आज के माइल स्टोन की तरह दूरी तो बताती ही थी, यात्रियों की थकान भी उतारती थी.   इन्होंने तरह तरह के यात्रियों को एक दूसरे से मिलाकर एक संस्कृति भी बनाई जिसे आज हम गंगा जमुनी  संस्कृति कहते हैं. इनका नाम भी उसी मेल जोल का उदाहरण है, कोस संस्कृत है और मीनार फारसी.

बुधवार, 4 नवंबर 2009

अलसस्य कुतो विद्या : एक आलसी का जन्म दिन



लखनऊ, 4 नवम्बर 09
उस नीतिवाक्य की माने तो आलसी को विद्या कहाँ ? उधर चाणक्य महोदय भी कह गये हैं कि आलस्य मनुष्य के लिये स्वाभाविक तो है पर आलसी की प्राप्त की गयी विद्या नष्ट हो जाती है.

पर यहाँ एक ब्लागर हैं जो स्वयम को आलसी कहते हैं और अपने इस स्वघोषित गुण को बार बार बताते अघाते भी नहीं.

इस आलसी से मेरा परिचय लगभग एक दशक पूर्व हुआ. मैं पहिले वाराणसी पहुँच चुका था और महोदय कुछ दिन बाद आये. बड़ा अंतर्मुखी जीव लगा मुझे. पर अगले कई वर्ष साथ काम करते करते पता चला वो अंतर्मुखी नहीं, अल्पभाषी था. हलांकि, अब यह भ्रम भी टूट गया है, वो अल्पभाषी भी नहीं, उसके तरकस में तो भाषा के अनगिनित तीर हैं, हाँ! ये कलम से फूटते हैं, मुख से नहीं.

तो, जब महोदय वाराणसी पहुँचे तो हम उनसे मिलने पहुँचे. परिवार से परिचय हुआ, बातचीत हुयी, चाय पीयी और चलने लगे. अब ये महोदय, जिद करने लगे भोजन करके जाइये. हम समझाते रहे, अरे भाई, अभी सब अस्त व्यस्त है, जम जाओ, फिर किसी दिन आयेगे. महोदय कहने लगे अरे अपने लिये तो खिचडी बनेगी ही, वही खाके जाइये. अंत में मान तो गये पर इस प्रकरण से हमारा उन्हें जान गये. हमारी तरह गंवई आदमी जिसका सभ्याचार कहता है कि जब कोई आये तो खिलाये बिना न भेजो. जाना ये भी कि औपचारिकता से दूर है ये प्राणी (उसके ब्लागानुसार, लंठ).

हम वाराणसी में लगभग गंगा तट पर रहते थे और कितनी ही बार साथ साथ गंगा स्नान किया और उसके बहाने तरह तरह का ज्ञान विनिमय भी. एक बार कहीं साथ साथ जाते में उसकी एक पर्त और खुली, उसे कविता की कोई किताब पढते देखा. ऐसे ही कई वर्ष बीत गये और हमारा स्थानांतरण हो गया. कुछ वर्ष बाद लखनऊ में फिर मिले. यहाँ हमने सोचा काम तो हम दिन रात करते हैं, क्यों न एक ऐसा मंच बनाये जहाँ हम काम के अलावा कुछ भी बात करें. कहते हैं ये, बेस्ट एचाआर प्रेक्टिस होती है, जिससे कर्मचारी पुनर्जीवित होते हैं. नाम रखा, फोरम. दिन तय हुआ और पहला वक्ता भी. लेकिन तय दिन पर वक्ता कहीं व्यस्त हो गये, कम्बख्त काम पीछा नहीं छोडता. अब किसे तलाशे ! सोचा, इन महोदय को कहते हैं. महोदय, एक उत्कृष्ठ सिविल इंजीनियर हैं तो मेरी अपेक्षा रही कि वे बतायेगे कि कैसे बनते हैं कंक्रीट के जंगल. पर, मैंने मा ते संगोस्त्वकर्मणि (आलस के विरुद्ध) का ज्ञान दिया और मंच महोदय के हाथ में. तब मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब महोदय ने अपनी एक और पर्त खोली. उन्होंने विषय चुना था, फैज अहमद फैज की नज्म, मुझसे पहले सी मुहब्ब्त मेरे महबूब न मांग. फिर तो कविता की पर्त दर पर्त खुलती रही और उनकी भी. जिसे सब प्रेम का गीत माने बैठे थे वो बुद्ध के रास्ते समाजवाद का नारा लगने लगा.

फिर एक दिन उनके ब्लाग का पता चला और ब्लाग का नाम देखते ही सोचा, सही कहते मनोवैज्ञानिक, चेहरे पर चेहरे लगा के घूमते हैं लोग, मल्टी पर्सनलिटी सिंड्रोम ! महोदय अपने को आलसी कहते हैं या कहूँ आलसी समझते हैं पर कथा, कविता, निबन्ध, रिपोर्ट क्या क्या नहीं लिखते, और सब की सब ऐसी कि सहब्लागरस कहाँ उठते हैं, हाय इस आलसी के ऐसे आलस पर कुर्बान.

महोदय ने अलसस्य कुतो विद्या को झुठला दिया है, इनके उदाहरण से तो होना चाहिये, अलसस्य सदा विद्या. उधर चाणक्य महोदय को भी ये धता बता रहे हैं, इन्हें देख वे कहते आलसी की प्राप्त की गयी विद्या दिन दूनी रात चौगुनी ( या और भी ज्यादा क्योंकि इनकी अधिकांश पोस्ट या तो रात में होती हैं या बिल्कुल भोर में ) बढ्ती जाती है.

तो भैया ! आज आलस्य न करो, और जन्मदिन की ढेर बधाई स्वीकार करो.


{आप चाहें यहाँ टिप्पणी करें या आलसी जी (उन्हें पहचानना मुश्किल तो नहीं) के ब्लाग पर, पर उन्हें जन्मदिन की बधाई देने में आलस न करें}

बुधवार, 28 अक्तूबर 2009

एक भाषा के भग्नावशेष


वैशाली की यात्रा में बुद्ध की स्मृति से जुडे अनेक भग्नावशेष देखे. बुद्ध की अस्थियों पर बनाये गये स्तूप के अवशेष देखे, उनके अंतिम उपदेश का स्थान देखा. बज्जियों के लोकतांत्रिक रूप से चुने राजाओं के राज्याभिषेक से जुडा कुंड देखा. आम्रपाली के आम्रकुंज की किंवदंती सुनी और महावीर का जन्मस्थान भी देखा.


लेकिन इन सब के अलावा एक और संस्था के अवशेष सुने! जिस बज्जि संघ ने बुद्ध को संघ बनाने की प्रेरणा दी, उस संघ की भाषा के अवशेष. वैशाली में घूमते घूमते मैंने पाया कि लोग जो भाषा बोल रहे हैं वह इस भूभाग की भाषा के रूप में जानी जाने वाली भाषा मैथली / भोजपुरी से कुछ अलग है. जानकारी करने पर पाया कि यह बज्जिका है. इस नाम ने मन में और कोतूहल पैदा किया.

बज्जिका भारत के वैशाली, मुज्जफरपुर, शिवहर, सीतामढी एवं समस्तीपुर और नैपाल के सर्लाही जनपद की एक लोकभाषा है. अनुमानों के अनुसार पक्चीस लाख (कुछ अनुमान इसे पूरे एक करोड़ तक आँकते हैं) से अधिक लोग बज्जिका बोलते हैं. निसंदेह यह एक बडी संख्या है. परंतु साहित्य और व्याकरण के आभाव व राज्याश्रय न होने के कारण बज्जिका औपचारिक भाषा का रूप न ले सकी. लेकिन प्राचीन काल से लोगों द्वारा अबाध प्रयोग और पीढी दर पीढी संचरण के कारण इसका लोकभाषा का स्वरूप बना रहा.

लेकिन आज अन्य पडोसी भाषाओं जैसे मैथिल या भोजपुरी के प्रसार और टेलीविजन, समाचार पत्र (यद्यपि नैपाल में तो कुछ समाचार पत्र बज्जिका के पृष्ठ रखते हैं ) व शिक्षा के माध्यम से हिन्दी के प्रभाव ने बज्जिका को विलुप्त होने के कगार पर पहुँचा दिया है और यह केवल घोर ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों की आपस की भाषा भर रह गयी है और शहरी लोग अब हिन्दी बोलने लगे हैं. लोग घरों में बज्जिका बोलते पर पर बाहर हिन्दी बोलते हैं.

लेकिन क्या खो जाने का संकट केवल बज्जिका पर है ? नहीं, यूनेस्को की माने तो भारत की 196 बोलियां धीरे धीरे मौत की ओर बढ रही हैं. सच तो यह है कि तरह तरह की भाषा और बोलियों के पोषण का आभाव और अंग्रेजी के प्रति अति दीवानेपन के कारण वह दिन दूर नहीं जब बज्जिका ही नहीं उस जैसी कितनी ही बोलियां विलुप्त हो जायेंगी. इस धीमी मौत का अहसास मुझे हर बार तब होता है जब मैं अपने गाँव जाता हूँ और मुझे रसखान की ब्रज भाषा के शब्द सुनने को नहीं मिलते वरन बुजुर्गों के मुंह से भी शहरी खडी हिन्दी सुनाई देती है. कितने ही शब्द मौत की नींद सो चुके हैं और उनके अर्थ समझने या बताने वाले ढूँढे नहीं मिलते.

कहते हैं कि कुछ ही सालों में दुनिया भर में केवल आठ दस भाषायें बचेगी. ये मेंडारिन (चीनी), अंगरेजी, स्पेनिश, बांग्ला, हिंदी, पुर्तगाली, रूसी और जापानी आदि हैं। इनमें भी अंगरेजी तो सबके सिर पर सवार है ही. कुछ लोग कहते हैं कि इसमें बुरा क्या है, जितनी कम भाषायें उतना अच्छा संवाद. पर भाषा क्या केवल संवाद है ? भाषा संस्कृति भी है और इतिहास भी. जब कोई बज्जिका बोलता है तो वह बज्जि संघ की लोकतांत्रिक पम्पराओं को, आम्रपली के इतिहास को आगे बढा रहा होता है. जब कोई बनारस के घाट पर सुबह सुबह संस्कृत के वही मंत्र उच्चारित ( भले ही बिना उन्हें समझे, हाँ! समझने लगे तो फिर कहना ही क्या! ) करता है जो तीन हजार पहले उसके पूर्वज करते थे तो वह इतिहास के गौरवशाली पन्ने पलटता है और भाषाओं के उद्घाटित न होने से इतिहास के खो जाने का भय नहीं होता. एक भाषा की मौत के साथ वहाँ के जीवन की विशिष्टता और सांस्कृतिक धरोहरें भी काल कलवित हो जाती है. इजिप्ट का उदारहण देखे, वहाँ की भाषा के साथ वहाँ का इतिहास भी सहारा के रेत में खो गया और तभी उद्घाटित हुआ जब राजाओं की कब्र खुदीं और किसी ने गूढ़लिपियों को पढा.

मैं इस यात्रा से यह सोचता हुआ लौटा कि कितने ही मंदिरों, विहारों और प्रसादों का जीर्णोद्धार तो सर अलेक्जेंडर कनिंघम ने कर दिया पर क्या बज्जिका और उस जैसी अनेक भाषाओं का उद्धार कोई करेगा क्या?

सोमवार, 19 अक्तूबर 2009

बुद्ध से मुलाकात

गया 11.10.09


जब भी पटना आया मन हुआ कि गया जाकर बुद्ध से मिल लूं.

एक बार कोशिश की तो कोई बाधा आई और मैं पहुंच गया, वैशाली.  वही वैशाली जो प्राचीनतम गणराज्य था. लिच्छवियों का.  नगरवधु से बौद्धभिक्षुणी बनी आम्रपाली का।

बौद्ध धर्म के लिये तो वैशाली विशेष है ही लेकिन मेरे विचार से उससे जुडी एक खास बात पूरे समाज की दृष्टि से अति विशेष है. बुद्ध संघ में नारियों के प्रवेश के पक्षधर नहीं थे और यह वैशाली ही था जहाँ बुद्ध झुक गये और नारी को संघ में स्थान मिला. नारी पुरुष से हीन नहीं, उसकी कमजोरी भी नहीं, वह उनके साथ मिल कर संघ को चला सकती है.  वैशाली में बुद्ध को ढूंढा मिले नहीं, आम्रपाली भी नहीं मिली. सच तो यह है कि वैशाली ही नहीं मिला. पूरा क्षेत्र वैशाली के वैभव की छाया भी नहीं है. निर्धनता सब ओर दिख रही थी.  कारण ? मुझे तो लगता है इसके पीछे केवल धन का आभाव नहीं, इच्छा का आभाव भी है. एक छोटा सा उदाहरण, कोल्हुआ,  वैशाली के में  वह स्थान जहाँ बुद्ध ने लम्बा समय बिताया, कई चमत्कार किये और अपना अंतिम उपदेश दिया. सच यह कि वैशाली की पहचान एक सिंह वाली अशोक की लाट भी यहाँ है. पर जब वैशाली जनपद बना तो कोल्हुआ को मुजफ्फरपुर में छोड दिया.  भावशून्य सीमांकन.  यही भावशून्यता विकास के लिये भी है.

कुछ दिन बाद फिर एक अवसर आया तो फिर कुछ अडचन आयी और मैं गया के स्थान पर नालंदा जा पहुँचा. नालंदा, शायद दुनियां का सबसे पुराना विश्वविद्यालय जहाँ के द्वारपाल भी द्वार पंडित कहाते थे और प्रवेश के इच्छुक विद्यार्थियों का पहला टेस्ट ले लेते थे. बख्तियार खिलजी ने इसे 1193 में जला के खाक कर दिया. पुस्तकालय के खंडहरों में आग के निसान देखे तो दु:ख हुआ. एक धर्मांध के कारण विद्या का एक श्रेष्ठ मंदिर नष्ट हो गया.   वैशाली की तरह यहाँ भी जब ज्ञान तलाशा तो चारो ओर अशिक्षा ही अशिक्षा दिखी.

आज एक बार फिर अवसर मिला, गया जाने का. रास्ते में दीवारों पर आनंद मार्ग अमर रहे के नारे दिखे तो पता चला कि हम नक्सलवाद  प्रभावित क्षेत्र से गुजर रहे हैं. जहांनाबाद निकट आ रहा था, तभी सडक पर जाम दिखा. किसी के अपहरण के विरोध में. जाम इतना अधिक कि आगे बढना असंभव दिखा. बुद्ध के ज्ञानक्षेत्र में हिंसा एकमात्र विकल्प रह गया है ? लगा इस बार भी बुद्ध से मुलाकात नहीं होगी.   लौट की सोच ही रहे थे कि जाम के उस पार तक पैदल जाकर दूसरे वाहन से गया जाने की योजना बनी और अंतत: हम गया में हैं. नैरंजना नदी के किनारे किनारे देखा एक बालू का विस्तार.  बिना पानी की नदी या अंत:सलिला. मुझे लगा क्या यह नदी की मौत से पहले की स्थिति है? क्या सरस्वती भी ऐसे ही विलुप्त हो गयी?
फिर उस बोधिवृक्ष के नीचे पहुँचे जिसके नीचे बैठकर बुद्ध को ज्ञान मिला. थोडी देर बैठा और ध्यान लगाया. लौटने लगा तो सोचा बोधिवृक्ष का एक पत्ता ले चलूं. लेकिन वहाँ का वातावरण देख, तोडने का साहस नहीं कर सका. तभी मेरे ऊपर एक सूखा पत्ता गिरा. तो क्या ये बुद्ध से मुलाकात का प्रतीक था ? ज्ञान मिला ? हाँ ! बुद्ध के देश में अभी भी कितनी  निर्धनता है, कितनी अशिक्षा है, कितनी करुणा है?

रविवार, 4 अक्तूबर 2009

कुछ भी तो नहीं होता, और दिन हो जाता है कल


02 अक्टूबर 2009 : गांधीजी का जन्म हो या मेरा एक निराशा ही घेरती है, क्योंकि इतने सालों में कुछ भी बदलता नहीं. ऐसे ही क्षण में लिखा था...

कुछ भी तो नहीं होता, और दिन हो जाता है कल
सुबह होती है यूँ ही अलसाई सी और तभी आ जाती है
शाम भी दिन गिनता हूँ तो तीस हो जाते हैं और गिनता हूँ महिने तो बारह
साल गिनता हूँ तो लगता है कि कम है एक उम्र भी
यूँ ही कटता है जीवन का हर पल
कुछ भी तो नहीं होता, और दिन हो जाता है कल




रोज वही सब कुछ
स्कूल बसों के हार्न, आफिस जाने वालों का क्रंदन
फिर भी न जाने क्यों लगता है क्या रुक जायेगा जीवन का स्पंदन
इतने लोग हर ओर, सबका अपना अपना शोर
सुने कैसे कोई मेरा कोलाहल
कुछ भी तो नहीं होता, और दिन हो जाता है कल




मैं जीवन को जीता हूँ या जीवन जीता है मुझको
किससे पूंछू अपने जैसा ही पाता हूँ सबको
सोचा करता हूँ, बस कल से परिवर्तन होगा
पर हर रोज सुबह
घिर आते हैं आशंकाओं के बादल
कुछ भी तो नहीं होता, और दिन हो जाता है कल


प्रतिदिन करता हूँ अपने से
सपनो को सच करने के वादे
ऐसे ही बीत गये जीवन के दिन आधे ना जाने क्यूँ करता हूँ अपने से ये छ्ल
कुछ भी तो नहीं होता, और दिन हो जाता है कल

सोचा कितनी बार अब और नहीं रहने दुंगा मैं ऐसा संसार पर ना जाने क्यूँ
सोते में अपनी करवट भी नहीं सका बदल
कुछ भी तो नहीं होता, और दिन हो जाता है कल
मैं रुका भी नहीं, कहीं पहुँचा भी नहीं
न जाने कैसे रहा था मैं चल
कुछ भी तो नहीं होता, और दिन हो जाता है कल

शनिवार, 26 सितंबर 2009

सर्वेसंतु निरामया:।



भुवाली, 15 सितम्बर 2009


नैनीताल के पास भुवाली में हूँ. भुवाली जो अपने प्राकृतिक सौन्दर्य से ज्यादा टीबी सेनोटेरियम के लिये जाना
जाता है. इसकी ख़्याति इससे भी है कि जवाहर लाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू ने यहाँ इलाज कराया था. पर टीबी उन दिनों एक जान लेवा बीमारी थी और भुवाली जैसे स्थान बस बीमारों की अंतिम यात्रा थोडी कम कष्टप्रद बना देते थे. पिछ्ली सदी में विज्ञान ने टीबी का तो इलाज ढूंढ लिया और आज किसी को भुवाली नहीं जाना होता, डाकिया उसकी दवाई घर पहँचा देता है.


लेकिन, दुनिया में बीमारियों की कमी नहीं, एक से बढ्कर एक मारक. हर दिन एक नयी बीमारी से सामना होता है, कभी चिंपेंजियों के जरिये, कभी मुर्गे के और कभी सुअर के. फिर सडक और अन्य हादसे. प्रजनन आदि से संबन्धित कष्ट भी कितनी स्त्रियों की जान ले लेते हैं. और आज की कुंठा भरी दुनियां में आत्मघात भी एक बडी बीमारी है.


बुद्ध ने ठीक ही कहा था, दुख हैं !


विज्ञान की इतनी तरक्की के उपरांत भी तीसरी दुनिया के देशों में स्वास्थ सेवायें खुद बीमार हैं. और भारत तो तीसरी दुनियां का सिरमौर है. एक तो हमारे देश में सार्वजनिक अस्पताल बस बडे बडे शहरों तक सीमित हैं फिर उनका संचालन ऐसा कि आदमी को लगता है कि बीमारी का इलाज कराते कराते एक नयी बीमारी साथ न होले. ग्रामीण क्षेत्रों के लिये तो उनके घर से अस्पताल की दूरी ही जान लेवा हो जाती है. आज भी कितनी प्रसूतायें नया जीवन देते देते अपना जीवन खो देती हैं.






हल्द्वानी के आस पास घूमते घूमते एक एम्बूलेंस जैसी गाडी पर बार बार नजर जाती है. साथ में शलभ हैं, पूछा तो पता चला कि ये उत्तराखंड सरकार की अल्ट्रा माडर्न एंबूलेंस सेवा है जिसको 108 सेवा कहा जाता है. 108 इसलिये कि ये टोल फ्री टेलीफोन नम्बर है जिस पर लोग परेशानी में फोन करते हैं और 15-20 मिनट में एंबूलेंस उनके पास पहुँच जाती है. ये बीमार को नजदीकी अस्पताल ले जाती है. अगर समस्या गंभीर नहीं तो ये एंबुलेंस के साथ चलता फिरता अस्पताल भी है. गंभीर बीमारों को अस्पताल पहुँचाने के अलावा, इस एंबूलेंस ने मेटर्निटी अस्पताल का काम बखूबी निभाया है, हजारों गर्भवती माताओं को अस्पताल पहुँचा कर या सैंकडो मामलों में चलते चलते ही सफल व सुरक्षित जनन करा कर. क्या खूब ! ऐसी सेवा तो बडे बडे शहरों में भी नहीं.


बाद में पता चला कि यह सेवा आंध्र, गुजरात, गोआ और मेघालय में भी है और कुछ अन्य राज्य इसे चालू करने की योजना बना रहे हैं. ये भी कि इस प्रकार की सेवायें तो सब राज्य दे सकते हैं, नेशनल रूरल हैल्थ मिशन के तहत.


सार यह कि जब अच्छी स्वास्थ सेवाओं की बात हो तो केवल विदेश ही उदाहरण नहीं, हमारे देश में भी नखलिस्तान हैं. लेकिन बहुत से राज्यों की समस्या उनका गैर उत्पादक कार्यों में व्यस्त रहना भी है. और सही तो यह कि इच्छा का आभाव भी है. पिछ्ले दिनों ये भी पता चला कि रूरल हैल्थ इंश्योरेंस कार्यक्रमों के तहत ग्रामीण गरीबों को साल में तीस हजार तक के मुफ्त इलाज की व्यवस्था है, लेकिन ऐसे ग्रामीण नहीं मिले जिन तक ये सुविधा पहुँची हो.




तो सर्वेसंतु निरामया: का ध्येय कब पूरा होगा ? बुद्ध ने ये भी कहा था कि दुख का निदान भी है. आवश्यकता है बस सभी के वह करने की जो कुछ करते हैं.


शनिवार, 19 सितंबर 2009

हमारी वाली ईद


लखनऊ 19 सितम्बर 09

ईद मुबारक.



इसे मैं उत्तर प्रदेश के समाज का ताना बाना मानूं या एक संयोग कि मेरा पूरा बचपन और किशोरावस्था ऐसे स्थानों पर बीती जो मुस्लिम संस्कृति से ओत प्रोत थे.


आँवला, बरेली जिले की एक तहसील है, एक छोटा सा कस्बा. मेरा बचपन यहाँ बीता. यहाँ मुस्लिम आबादी तो खूब थी ही साथ में मुस्लिम संस्कृति का पूरा असर शहर पर था. शायद पूर्व में रूहेला हुकुमत का एक प्रमुख केन्द्र होने के कारण. यहाँ मुस्लिम बस्तियाँ अलग तो थी पर अलग नहीं थी. हमारे घर के पीछे मुस्लिम बस्ती थी और सामने मस्जिद. फज्र की अज़ान से ही हमारी नींद खुलती थी.


अलग अलग संस्कृतियों का मिलन ऐसा था कि ईद की खुशी से हम बच नहीं सकते थे और दीपावली की रोशनी उनके घरों को रोशन करके ही मानती थी. इस मेल से कभी कभी उलझन भी खडी हो जाती थी. एक बार मोहर्र्म और होली आसपास थे. मोहर्र्म का जुलूस हमारे घर के नीचे से निकल रहा था और उस त्योहार की संजीदगी से बेखबर मैंने अपनी पिचकारी का मुँह खोल दिया. एक बुजुर्ग के कपडे खराब हुये तो उन्होंने तीखी नजरों से मुझे देखा, चिल्लाया और मेरा डर से बुरा हाल. इतने में लाला रामप्रताप जी जिनकी मस्जिद के पास दुकान थी, बोले, हाजी साहब! गम में गुस्सा ! थूक दो. हाजी साहब मुस्कराये और आगे बढ गये. उस दिन मुझे मोहर्र्म और गम का रिश्ता समझ आया.


लेकिन आज गम की नहीं हम ईद की बात करने बैठे हैं. ईद का अर्थ ही होता है खुशी. और ईद पर आँवला की हवा में भी खुशी होती थी.


आँवला में मेरे कई दोस्त थे इनमें एक था रफीक. उसका धर्म या गरीबी कभी हमारी दोस्ती के बीच नहीं आयी. सच तो यह है कि हमारे मन तब तक सामाजिक विभाजन की ये धार्मिक या आर्थिक दरारें थी ही नहीं. रफीक के पिता सलीम साहब तांगा चलाते थे. बहुत बाद में वे अचानक रिक्शा चलाने लगे. रफीक से पूछा तो पता चला कि उन्हें अपने बच्चों को पालने के लिये घोडे पर जुल्म अच्छा नहीं लगा और खुद रिक्शा चलाना बेहतर लगा. कितने खूबसूरत विचार!


ईद आती थी तो हम भी ईदगाह जाते थे, भले ही हमारा उद्देश्य नमाज नहीं मेला होता था. सबसे गले मिलते और फिर दोस्तों के घर सैंवई की दावत उडाते. एक मजेदार बात और, पिताजी अपने मुस्लिम मिलने जुलने वालों से कहा करते थे कि ये ईद हमारी है और बकरीद आपकी. उनका अर्थ था कि हम ठहरे शुद्ध शाकाहारी, बकरीद के मांस से बने पकवान हमारे किस काम के. हमारी ईद तो ईद उल फित्र है जब सैंवई बनें. इसे हम बहुत दिनों तो शाब्दिक अर्थ में लेकर ईद उल फित्र को अपना त्योहार मानते रहे.


आर्थिक तंगी इस तरह थी कि शाम को जब सलीम साहब घर लौटते तो रफीक रघ्घन की दुकान से एक दिन के लिये आटा, तेल और मसाले ले जाता. लेकिन ईद पर उसका परिवार भी फित्र ( दान ) में अनाज देता. ईद खुशी है और जब तक सब एक-दूसरे की खुशी में शरीक न हों तब तक ईद कहाँ. पृथ्वी पर गरीबों की कमी नहीं, जो अपने को गरीब समझते हैं उनसे भी गरीब कोई है. तो उनको दान दिया जाए तकि वे भी ईद की खुशियाँ मनायें.


हाईस्कूल के बाद हम अलीगढ आ गये और फिर रफीक नहीं मिला. न जिस्मानी न रूहानी. अलीगढ की हवाओं में भी ईद की खुश्बू बहती थी और दीपावली का प्रकाश भी, यहाँ भी मेरे मुस्लिम दोस्त बने और ईद की सैंवइयां भी खूब खाईं पर एक विभाजन था एक दरार थी. अलीगढ दंगों के लिये कुख्यात था. दंगा हर साल एक रिवाज की तरह लौटता था, ये अलग बात है कि ये तय नहीं था कि किस बात पे दंगा होगा. अलीगढ ने मुझे एक अलग इस्लाम से भी मिलाया. बहुत बाद में जाना कि जहाँ संभवत: मेरे बचपन के आँवला का इस्लाम बरेली का हिस्सा होने के नाते इस्लाम की नरम बरेलवी विचार धारा में डूबा था, अलीगढ दुनियाँ भर की इस्लामी विचार धाराओं का गढ था और दुविधा में था.


इन दिनों लखनऊ में हूँ. मेरी ही तरह मेरी पत्नी की भी सबसे अच्छी दोस्त मुस्लिम है. अपनी वाली ईद पर हम उनके घर जाते हैं तरह तरह की सैंवईं खाते हैं और खुशी मनाते हैं. जब उनके और मेरे बच्चे उनसे और हमसे ईदी माँगते हैं तो मुझे लगता है मेरा बचपन लौट आया है.


ईद मुबारक.

सोमवार, 14 सितंबर 2009

हमें उस पौष के नवान्न की प्रतीक्षा है

हल्द्वानी 14 सितम्बर 09

एक हजार साल ! किसी भी दृष्टि से ये एक लंबा समय होता है. इस अवधि में भारत ने भारतीय कला और विद्या की पराकाष्ठा देखी और उसका पतन भी. तंजावुर के सुंदर मंदिर या नालंदा का विशाल विश्वविद्यालय सभी कुछ पिछ्ली सहस्राब्दि के प्रार्ंम्भ में हो रहा था.


लेकिन आज तो हम उस सहस्राब्दि के प्रार्ंम्भ में जन्मी एक जीवंत संस्था की बात कर रहे हैं. ये है हिन्दी. अमीर खुसरो के समय तक हिन्दी विकसित हो चुकी थी और वे इसके पहले ब्रांड एंबेसडर कहे जा सकते हैं. उन्होंने कहा था, “मैं हिंदी की तूती हूँ, तुम्हें मुझसे कुछ पूछना हो तो हिंदी में पूछो, तब मैं तुम्हें सब कुछ बता दूँगा।” लेकिन एक हजार साल बाद भी खुसरो की तूती, नक्करखाने में तूती की आवाज जैसी लगती है.


हिन्दी दुनियाँ में दूसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है जिसे लगभग पचास करोड लोग बोलते हैं जो स्वयम भारत व चीन को छोड्कर किसी भी देश की जनसंख्या से कई गुना ज्यादा है. दूसरी ओर इस महादेश के केवल पाँच सात करोड लोग ही अंग्रेजी बोलते समझते हैं, इससे अधिक लोग तो बंग्ला, तेलगू, मराठी, तमिल बोलते हैं. साथ ही अंग्रेजी वे अपनी दूसरी भाषा के रूप में बोलते हैं, और उसकी गुणवत्ता की बात न करें तो बेहतर. अर्थ यह भी कि जब ये लोग अंग्रेजी बोलते हैं तो वे अपने को सीमित करते हैं.


तो फिर दिक्कत क्या है ? दिक्कत तो हमारे मन में है.


बार बार ये बताने का कोई लाभ नहीं कि किस तरह चीन जैसे विशाल और इजराएल जैसे छोटे देश में अपनी भाषा स्थापित हो गयी. हम तो बस इतने में खुश हो जाते हैं कि हमने चीन को पश्चिम की ओर माइग्रेशन में इसलिये पछाड दिया क्योंकि हमारे लोगों की अंग्रेजी अच्छी है. लेकिन ये एक भ्रम है, अंग्रेजी कुछ लोगों को नौकरी पाने का साधन तो हो सकती है, पर मेरे और तेरे बीच के संवाद की भाषा नहीं. उसके लिये वही भाषा काम आती है जिसमें हम सोचते हैं.


तो क्या हम ये कह रहे हैं कि अंग्रेजी बाय बाय. नहीं, बिल्कुल नहीं. आप जानते हैं, आजकल हमारे देश के ढेर सारे बच्चे पढने रूस और चीन जाते हैं. और ये दोनों ही देश अंग्रेजी में तो पढाने से रहे ( हांलाकि चीन में अब कुछ कालेज अंग्रेजी माध्यम का विकल्प रखते हैं). तब कैसे पढते और रहते हैं ये बच्चे ? जब वे इस तरह के गैर अंग्रेजी देशों में पहुँचते हैं तो पहले कुछ महिने इन्हें वहाँ की भाषा सिखाई जाती है और फिर शुरू होती है उनकी असली पढाई. इस के दो अर्थ हैं, एक, जब रूसी और मेंडारि‍न में तकनीकी शिक्षा हो सकती है तो हिन्दी या फिर किसी अन्य भारतीय भाषा में क्यों नहीं ? दो, जब लोग जरूरत पडने पर रूसी और मेंडारि‍न और न जाने कैसी कैसी कठिन भाषायें कुछ ही समय में सीख लेते हैं तो जब जिसे जरूरत हो अंग्रेजी सीख ले, उसे अनिवार्य रूप से पढाने,थोपने की आवश्यकता क्यों?


हिन्दी भावना के अतिरिक्त बाजारवाद की जरूरत भी है. इस देश की हिन्दी बोलने वाली जनसंख्या में पच्चीस आस्ट्रेलिया समा सकते हैं. ये बहुत बडा बाजार है, इससे संवाद, इसकी अपनी भाषा में हो तो ही इसका दोहन होगा. हाँलाकि ये बात अब सबकी समझ में आ रही है तभी तो दुनियाँ भर की कम्पनियाँ हिन्दीभाषी लोगों के लिये उत्पाद बना रही हैं, हिन्दी में विज्ञापन बना रही हैं और हिन्दी धारावाहिकों को प्रायोजित कर रही हैं.


त्योहरों के इस देश में, हमने हिन्दी दिवस को भी एक त्योहार बना दिया है. त्योहार मनाइये और गणपति बप्पा... की तर्ज पर कहिये हिन्दी दिवस मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ. और इस बार का हिन्दी दिवस तो खास है, इस बार ये सठिया गया है. कहा जाता है कि साठ वर्ष या इससे अधिक का हो जाने पर मानसिक शक्तियों के क्षीण हो जाने के कारण ठीक तरह से काम-धंधा करने या सोचने-समझने के योग्य नहीं रहते । लेकिन खुश खबर यह है कि हिन्दी के साथ ऐसा नहीं हो रहा.


व्यवस्था की असंवेदनशीलता जो केवल ये आँकडे जुटाने में व्यस्त रहता है कि किसने कितने पत्र हिन्दी में लिखे, के बाबजूद हिन्दी अपना दायरा बढा रही है. आप नेट पर जाइये, अनगिनित हिन्दी ब्लाग्स से सामना होगा. आज करोड़ों की संख्या में हिन्दी अखबार छप रहे और रीडरशिप में अंग्रेजी अखबारों को पीछे छोड रहे हैं. हिन्दी के टीवी चैनल चैन्नई में भी दर्शकों को सम्मोहित कर रहे हैं, हर गृहणी को चिंता है कि कल टीवी बहुओं का क्या होगा ? हिन्दी समाचार चैनलों पर आंध्र के दर्शक भी अपनी टिप्पणी हिन्दी में देते दिख जायेंगे.


सार यह कि हिन्दी को तो कल अपना स्थान पाना ही है, बात बस समय की है. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने हिन्दी के विषय में कहा था कि हिंदी की स्वाभाविक उर्वरता नहीं मर सकती, वहाँ खेती के सुदिन आएँगे और पौष मास में नवान्न उत्सव होगा।


हमें उस पौष की प्रतीक्षा है.

मंगलवार, 8 सितंबर 2009

मेरे पास बस भूख थी




 
लखनऊ 7 सितम्बर 09

बडी अद्भुत माया है प्रकृति की. कल तक तो सूखा सूखा का प्रलाप था और अब सुनते हैं कि बाढ़ आ रही है. निकटवर्ती घाघरा / सरयू की बाढ़ प्रलयकारी हो रही है. बाढ़ राहत कार्य शुरू हो गये हैं. पर समाचार बताते हैं कि राहत से कोई राहत नहीं हैं. कितना त्रासद है.


हे राम !    पर इसी सरयू ने तो राम को भी अपने में समाहित कर लिया था.


इस समाचार ने मुझे लगभग दस साल पहले की याद दिला दी. मैं तब इलाहाबाद में था और बाढ़ आयी थी. पर ये न गंगा में थी और न यमुना में. सरस्वती तो बहती ही नहीं, बढेगी कहाँ से. ये बाढ़ थी, टोंस में. इलाहाबाद की बात होती है तो हमें गंगा, यमुना, सरस्वती ही याद आती हैं पर पूरा क्षेत्र छोटी छोटी नदियों से भरा है. एक नदी का नाम मुझे याद आता है, ससुर खदेरी, स्त्रियाँ तो स्त्रियाँ, नदी भी सास ससुर की सताई हुयी? पर इस परित्यक्ता की बात फिर कभी.

टोंस इलाहबाद के दक्षिण में यमुना पार बहती है. विन्ध्य पर्वत से निकली ये नदी यूँ तो अपनी इलाहाबादी भगिनियों के सामने बहुत छोटी है पर अपनी छोटी छोटी बहनों के साथ प्रचीन सभ्यता की कुंजिया समेटे हुये है.


तो, टोंस में बाढ़ आ गयी. घर द्वार खेत सडक सब बहा ले गयी. मंत्रीजी की ओर से बाढ़ राहत की बात हुयी और पूरा अमला चल पडा.




स्थिति सचमुच त्रासद थी. वाहन चलने को सडक न थी. पहिये धंसे जाते थे. कई कारें रास्ते में ही साथ छोड गईं.


साथ चल रहे क्षेत्रीय अधिकारी ने काफिला एक जगह रोका, कहने लगे यहाँ एक गाँव था. पूरा का पूरा बह गया. पेड पर टंगे भूसे चारे के कण बता रहे थे कि पानी ने पेड पर चढने की सफल कोशिश की थी.



फिर वह अब गाँव कहाँ है?


क्षेत्रीय अधिकारी बोले, कुछ दूर, हमने ऊँची जगह पर कैम्प लगाये हैं. वहीं है गाँव. लेकिन कार न जा पायेगी. पैदल जाना होगा. आधे लोगों की बाढ़ सफारी यहीं समाप्त हो गयी.


कुछ लोग घुटनों घुटनों कीचड में चल कर कैम्प गाँव में पहुँचे. कैसा कैम्प है ये! लोगों को नीली पन्नी दे दी गयी है और उन्होंने खाट खडी कर उसे बांध लिया है. यही है सरकारी कैम्प. सचमुच लोगों की खाट खडी है.



पहुँचे तो पुरुष और बच्चे हमें घेर कर खडे हो गये. सरकार ने पन्नी के साथ सत्तू भी दिया है, स्त्रियाँ उसे घोल रही हैं. कुछ गीली लकडी को जलाने का यत्न कर रही हैं पर जल आग पर भारी है.




मंत्री महोदय ग्रामीणों से बात करने लगे.


कहाँ तक पहुँचा था पानी?


हर कोई अपने अनुसार बताने लगा. किसी के परिजन डूबे थे, किसी के पशु. किसी के खेत डूब थे, किसी का घर.




एक बूढा पास बहती टोंस को देख रहा था. मैं उसके पास पहुँचा और पूछा,


आपका क्या बहा बाबा ?


मेरे हाथ में बिस्किट का पैकिट देख, वह बोला, भूख !



मेरे हाथ खुद ही आगे बढ गये.




पर मैंने फिर पूछा, आपका क्या क्या बहा बाबा ? आज जब सोचता हूँ तो अपने को मूर्ख पाता हूँ. पहले एक क्या था फिर दो हो गये, क्या क्या?



पर उत्तर तो बस एक था, भूख ! वह भी इस बार आँखों से.


तब लौट कर एक कविता शुरू की थी जो पूरी तो नहीं हुयी पर आज जब बाढ़ की चर्चा हुयी तो याद आयी,


“कैसे कह दूँ, बाढ़ में मेरा सब कुछ बह गया,

मेरे पास तो बस भूख थी.”



रविवार, 6 सितंबर 2009

आशाओं का द्वीप

मुम्बई 1 सितम्बर 2009
याह्या खां. नाम सुनते ही हमें याद आता है पाकिस्तान का तानाशाह जिसने पूर्वी पाकिस्तान में अत्याचार किये और जो बंग्लादेश के जन्म का कारण बना. लेकिन आज हम उस याह्या खां की बात नहीं कर रहे.
मुम्बई हवाई अड्डे पर उतर कर टैक्सी के लिये बाहर आया तो पच्चीस छ्ब्बीस साल का एक ड्राईवर मेरी ओर लपका और मेरा सामान थाम लिया. मैं उसकी टैक्सी में बैठा और चल दिया.
मैंने उसका नाम पूछा,
याह्या खां, सर !
वह अधिकतर टैक्सी ड्राईवरस् की तरह पूर्वी उत्तर प्रदेश का है. इलाहाबाद के पास का. दस साल से यहाँ रहता है.
कौन कौन रहता है यहाँ ?
अकेला रहता हूँ, सर. बाकी सब लोग गाँव में रहते हैं.
कौन कौन है घर में ?
दादी हैं, माँ हैं, एक छोटा भाई और दो छोटी बहन हैं.
पिछ्ले साल याह्या के पिता का इंतकाल हो गया. तब तक वो और उसके पिता दोनो मुम्बई में रहते थे. लेकिन अब वो अकेला रह गया. दादा को तो उसने देखा भी नहीं था. पिता भी पूरे घर की जिम्मेदारी उस पर छोड कर चल दिये.
भाई बहन गाँव में पढते हैं. याह्या हाईस्कूल तक पढा और फिर मुम्बई आ गया. सभी तो उसके गाँव से यहीँ आते हैँ.
अकेला है तो क्या हुआ, वो पूरी शिद्द्त से पूरे रोजे रखता है. अभी अभी इफ्तार के बाद टैक्सी लेकर आया है. वो रात भर टैक्सी चलायेगा. उसे इसका तीन सौ रुपया किराया देना होता है. याह्या दिन में एक मेडीकल स्टोर पर भी काम करता है.
अरे भैया! सोते कब हो ?
बस, सवारी का इंतजार करते करते सो लेता हूँ, सर !
याह्या ! रमजान पर घर नहीं गये? ईद पर जाओगे ?
नहीं सर ! दिसम्बर में जाऊँगा.
अभी क्यों नहीं. इतना बडा त्योहार है. घर पर सब तुम्हारा इंतजार करेंगे.
पर सर, मुझे पैसा इकठ्ठा करना है, बहन की शादी करनी है. ईद पर सब घर जाते हैं, टैक्सी की बडी किल्लत रहती है. ऐसे में आमदनी अच्छी हो जाती है. इसलिये मैं घर नहीं जाउंगा.
आजकल मुम्बई में गणेश उत्सव और रमजान की धूम है. हर मोड पर होर्डिंग से तरह तरह के नेता जनता को शुभेच्छा देते झाँक रहे हैं.
आजकल मुम्बई में बडी रौनक है. कैसा लगता है?
अच्छा तो लगता है सर ! पर अपने इलाहाबाद बाली बात नहीं है. सिविल लाईंस का दशहरा कितना सुंदर रहता है. वैसे एक बात कहूँ सर, मुझे हिन्दुओं के त्योहारों में रक्षाबंधन सबसे अच्छा लगता है. कितना प्यारा त्योहार है. जब तक मैं गाँव में था , बहनों से राखी बंधाता था.
गणेश पंडालों के बाहर भीड है, जगह जगह जाम लगे हैं. पर गंत्व्य आ गया.
बाहर बारिश हो रही है पर मुझे भिगो रही हैं याह्या की गीली आँखे.

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

आपकी कॉफी के प्याले में क्या है?

मथुरा 26 अगस्त 09 आज पता लगा कि हम जो कॉफी पीते हैं बहुत चाव से, उसमें एक बडी मात्रा एक चिकोरी नामक जड़ की होती है. कॉफी के नाम पर कुछ अजीब सी चीज.
आज एक सज्जन से भेंट हुयी जो अपने खेत में चिकोरी उगाते हैं, बड़ी बड़ी कॉफी निर्माता कम्पनियों के लिये.

चिकोरी एक एक जंगली बारहमासी जड़ीबूटी है जो यूरोप में सडक के किनारे पर एक जंगली पौधे के रूप में होती थी और बाद में इसकी खेती की जाने लगी. इस पौधे की जड़ लंबी और मोटी होती हैं, पतली पतली मूली जैसी. इस पर बहुत सुंदर बैंजनी रंग के फूल आते हैं जो प्रति दिन ठीक एक समय पर खिलते और बंद होते हैं. पत्ते भी लगभग मूली जैसे होते हैं. नयी पत्तियों को सलाद में इस्तेमाल किया जा सकता है और जड़ को उबला कर सब्जी की तरह खाया जा सकता है.

पर इसकी जड़ कॉफी कैसे बन जाती है ? इन जडों को पहले गोल गो काट कर सुखाया जाता है. सूखने पर इन्हें भूना जाता है और फिर पीसा जाता है. और कॉफी तैयार.

बताते हैं कि पूर्व में जब कभी कॉफी अनुपलब्ध हुयी या महंगी हो गयी तो लोगों ने चिकोरी को एक विकल्प के रूप प्रयोग किया. कहते हैं कि इसमें कैफीन नहीं होती और यह कॉफी से अधिक कसैला स्वाद पैदा करती है.

विकल्प तक तो ठीक पर कई उत्पादक आपकी कॉफी में 30% तक चिकोरी मिला देते हैं. हमने सोचा कि ये तो धोखा हुआ पर घर आकर कॉफी के डिब्बे का लेबल देखा तो पाया कि उसमें 30% चिकोरी है. पर ये उत्पादक यह बात प्रचारित नहीं करते और कॉफी के दाम में चिकोरी पिला देते हैं.

रविवार, 30 अगस्त 2009

कालिंदी कूल कदम्ब की डारन


26 व 27 अगस्त 09, मथुरा. मैं मथुरा में हूँ. ब्रज में हूँ.
श्रुति है कि कृष्ण युगों पूर्व मथुरा से पालायन कर द्वारिका चले गये. परंतु, ब्रज आज भी सांवरे रंग में डूबी है. कृष्ण क़ॆ बिना ब्रज, आत्मा के बिना शरीर जैसे है.
लेकिन कृष्ण क़ॆ रंग विविध हैं, बिल्कुल जीवन के रंगो की तरह. बिल्कुल दिन के प्रहरों की तरह. फाल्गुन में ये रंग भौतिक होते हैं. श्रंगार रस में भीगे लाल, नीले, पीले रंग और साथ में बरसाने की लाठियां. वहीं आजकल (भाद्रपद) में ये रंग दैविक व लौलिक रूप धर लेते है. प्रेम व भक्ति का रंग. ब्रज के मंदिर इन दिनों संगीत व नृत्य की रंगशाला लगते हैं. ब्रज लोकगीतों की मंत्रमुग्ध करने वाली स्वर लहरी कृष्ण-राधा और गोपियों के प्रेम को साक्षात कर भाव विभोर कर देती है.
लेकिन, ब्रजवासियों का एक रूप बहुत अनूठा है. कृष्ण यहाँ उनकी प्रेयसी राधा के सम्मुख गौण हो जाते हैं. ब्रजबासियों के हृदय की सम्राज्ञी तो राधा हैं. पूरे ब्रज में हर ओर जय श्री राधे की गूंज सुनाई देती है. चाहे किसी को अभिवादन करना हो या ईश्वर स्मरण, बस एक जय श्री राधे में सब कुछ समाहित है. संभवत: ब्रजवासी कृष्ण का उन्हें छोडकर द्वारिका जाना भुला नहीं पाये. जब कृष्ण नहीं थे तो राधा ही तो उनका संबल थी.
कौन थी राधा? कई विद्वान मानते हैं कि राधा एक कल्पना है. कवि और लेखकों की कल्पना. ब्रज की जीवन रेखा क्या है? यमुना. तो क्या कृष्ण की चिरप्रेयसी यमुना ही राधा है?
जय श्री राधे.

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

कृष्ण की चिरप्रेयसी

पिछले दिनों मिली मुझे कृष्ण की चिरप्रेयसी, यमुना और कहने लगी अपनी करुण कथा :
अगर हाथ होते मेरे तो
कहती हाथ जोड़कर
कर दो मुझे क्षमा
कि मैंने तुम से दोस्ती की.
लिख पाती अगर पत्र तो
लिखती एक
नदी हित याचिका.
पूछ्ती उठा कर सर
ताज के वातावरण में
कार्बन जांचने वाले यंत्र से
कभी झुको और लो एक
अंजुरी जल मेरा
देखो, कुछ आक्सीजन शेष है क्या.

जिस जल से प्यास बुझाई
इन सबकी युगों तक
सींचा इनके खेतों और वनों को
और धो दिये पाप
शरीर के साथ साथ
आज भर दिया उसीको
जहर से और देखा भी नहीं मुड़कर


देखी हैं तुमने
ये सीडियां
पता नहीं
उतरती हैं नदी में
या उगती हैं यहाँ से
रोकती हैं मुझे
शहर में घूमने से
पर रोक पाती नहीं
शहर को मुझसे खेलने से

देखा है मैंने
मिटते अपनी सहोदरा सरस्वती को
मैंने अपनी सखियों को भी
देखा है अपनी राह ना आते अब
पर्वत कन्यायें ये
विमुख हुयी हैं मुझसे कुछ्
और कई तो व्यतीत हुई बन उष्मा
उनके स्थानों पर आती हैं
मुझसे मिलने अब
दूषिता कन्यायें नगर की
मेरे श्यामल तन को
भरती अपनी कालिख से
मेरे जल को जहर बनाती
अपने मारक विष से

ऋग वेद की ऋचाओं से
गीत गोविन्द के पदों तक
मैं उतरी हूँ हिमालय से
तुम्हारे मानस पर
कभी देवी
कभी उर्वरा और अन्नपूर्णा
कभी प्रेयसी बनकर
मैं सूर्य सुता
यम की भगिनी
मैंने पोसा है
मानव सभ्यताओं को
वनों को और
पशुओं के समाज को भी

देखा मैंने आर्यों को
युनानियों को
हूणों को और यवनों को
मुझ पर मोहित होते

बड़े बड़े बेड़ों को
अपनी लहरों पर
पार कराया महादेश

करुण कथा सुन एक दिन
एक यायावर ने पूछा
अर्पित करते हुये पुष्प
और गाते हुये प्रार्थना
मुझसे चिरन्तर
बहते रहने की
मैं क्या कर सकता हूँ माते !
तुम्हारा खेद मिटाने के लिये
मैं तो निरीह हूँ
अकेला हूँ अकिंचन हूँ

मैं तो स्वयम् भुक्त भोगी हूँ
मैंने ओक भर प्यास
बुझानी चाही
तो डस गया जहर
जल में छुपा
खुले गगन में
साँस लेने की कामना की मैंने
तो घुस गयी हृदय में
रेडियोधर्मी हवा
मैं तो हूँ साधनहीन
जब राज्य नहीं कुछ कर पाया
मैं क्या कर पाऊंगा मां!

मैंने कहा
वत्स ! कुछ तो
कर ही सकते हो
चलो ये पुष्प ही
अर्पित मत करो
और हाँ वह कुरूप थैली भी
जिसमें लाये हो तुम ये पुष्प
ये रोक देते हैं मेरी स्वांस
जानते हो तुम
यदि कहते हो तुम मुझे विष्णु
क्योंकि मैं सींचती तुम्हारे खेत
तो वृक्ष शिव हैं
पीते हैं विष जैसे उन्होंने पिया था

एक वृक्ष मेरे नाम से लगा दो
जब पुष्पित होगा वह
और गिरेंगे धरा पर पुष्प गुच्छ
वो ही मेरे लिये पुष्पार्पण होगा

मैं कृष्ण की चिरप्रेयसी
उन्हीं की तरह अजर अमर
रुक्मिनी सत्यभामा
यहाँ तक कि राधा की ईर्ष्या की पात्र
आज सोचती हूँ
क्या रह पाउंगी अमर
या हो जाउंगी विलोप.