बुधवार, 28 अक्तूबर 2009

एक भाषा के भग्नावशेष


वैशाली की यात्रा में बुद्ध की स्मृति से जुडे अनेक भग्नावशेष देखे. बुद्ध की अस्थियों पर बनाये गये स्तूप के अवशेष देखे, उनके अंतिम उपदेश का स्थान देखा. बज्जियों के लोकतांत्रिक रूप से चुने राजाओं के राज्याभिषेक से जुडा कुंड देखा. आम्रपाली के आम्रकुंज की किंवदंती सुनी और महावीर का जन्मस्थान भी देखा.


लेकिन इन सब के अलावा एक और संस्था के अवशेष सुने! जिस बज्जि संघ ने बुद्ध को संघ बनाने की प्रेरणा दी, उस संघ की भाषा के अवशेष. वैशाली में घूमते घूमते मैंने पाया कि लोग जो भाषा बोल रहे हैं वह इस भूभाग की भाषा के रूप में जानी जाने वाली भाषा मैथली / भोजपुरी से कुछ अलग है. जानकारी करने पर पाया कि यह बज्जिका है. इस नाम ने मन में और कोतूहल पैदा किया.

बज्जिका भारत के वैशाली, मुज्जफरपुर, शिवहर, सीतामढी एवं समस्तीपुर और नैपाल के सर्लाही जनपद की एक लोकभाषा है. अनुमानों के अनुसार पक्चीस लाख (कुछ अनुमान इसे पूरे एक करोड़ तक आँकते हैं) से अधिक लोग बज्जिका बोलते हैं. निसंदेह यह एक बडी संख्या है. परंतु साहित्य और व्याकरण के आभाव व राज्याश्रय न होने के कारण बज्जिका औपचारिक भाषा का रूप न ले सकी. लेकिन प्राचीन काल से लोगों द्वारा अबाध प्रयोग और पीढी दर पीढी संचरण के कारण इसका लोकभाषा का स्वरूप बना रहा.

लेकिन आज अन्य पडोसी भाषाओं जैसे मैथिल या भोजपुरी के प्रसार और टेलीविजन, समाचार पत्र (यद्यपि नैपाल में तो कुछ समाचार पत्र बज्जिका के पृष्ठ रखते हैं ) व शिक्षा के माध्यम से हिन्दी के प्रभाव ने बज्जिका को विलुप्त होने के कगार पर पहुँचा दिया है और यह केवल घोर ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों की आपस की भाषा भर रह गयी है और शहरी लोग अब हिन्दी बोलने लगे हैं. लोग घरों में बज्जिका बोलते पर पर बाहर हिन्दी बोलते हैं.

लेकिन क्या खो जाने का संकट केवल बज्जिका पर है ? नहीं, यूनेस्को की माने तो भारत की 196 बोलियां धीरे धीरे मौत की ओर बढ रही हैं. सच तो यह है कि तरह तरह की भाषा और बोलियों के पोषण का आभाव और अंग्रेजी के प्रति अति दीवानेपन के कारण वह दिन दूर नहीं जब बज्जिका ही नहीं उस जैसी कितनी ही बोलियां विलुप्त हो जायेंगी. इस धीमी मौत का अहसास मुझे हर बार तब होता है जब मैं अपने गाँव जाता हूँ और मुझे रसखान की ब्रज भाषा के शब्द सुनने को नहीं मिलते वरन बुजुर्गों के मुंह से भी शहरी खडी हिन्दी सुनाई देती है. कितने ही शब्द मौत की नींद सो चुके हैं और उनके अर्थ समझने या बताने वाले ढूँढे नहीं मिलते.

कहते हैं कि कुछ ही सालों में दुनिया भर में केवल आठ दस भाषायें बचेगी. ये मेंडारिन (चीनी), अंगरेजी, स्पेनिश, बांग्ला, हिंदी, पुर्तगाली, रूसी और जापानी आदि हैं। इनमें भी अंगरेजी तो सबके सिर पर सवार है ही. कुछ लोग कहते हैं कि इसमें बुरा क्या है, जितनी कम भाषायें उतना अच्छा संवाद. पर भाषा क्या केवल संवाद है ? भाषा संस्कृति भी है और इतिहास भी. जब कोई बज्जिका बोलता है तो वह बज्जि संघ की लोकतांत्रिक पम्पराओं को, आम्रपली के इतिहास को आगे बढा रहा होता है. जब कोई बनारस के घाट पर सुबह सुबह संस्कृत के वही मंत्र उच्चारित ( भले ही बिना उन्हें समझे, हाँ! समझने लगे तो फिर कहना ही क्या! ) करता है जो तीन हजार पहले उसके पूर्वज करते थे तो वह इतिहास के गौरवशाली पन्ने पलटता है और भाषाओं के उद्घाटित न होने से इतिहास के खो जाने का भय नहीं होता. एक भाषा की मौत के साथ वहाँ के जीवन की विशिष्टता और सांस्कृतिक धरोहरें भी काल कलवित हो जाती है. इजिप्ट का उदारहण देखे, वहाँ की भाषा के साथ वहाँ का इतिहास भी सहारा के रेत में खो गया और तभी उद्घाटित हुआ जब राजाओं की कब्र खुदीं और किसी ने गूढ़लिपियों को पढा.

मैं इस यात्रा से यह सोचता हुआ लौटा कि कितने ही मंदिरों, विहारों और प्रसादों का जीर्णोद्धार तो सर अलेक्जेंडर कनिंघम ने कर दिया पर क्या बज्जिका और उस जैसी अनेक भाषाओं का उद्धार कोई करेगा क्या?

सोमवार, 19 अक्तूबर 2009

बुद्ध से मुलाकात

गया 11.10.09


जब भी पटना आया मन हुआ कि गया जाकर बुद्ध से मिल लूं.

एक बार कोशिश की तो कोई बाधा आई और मैं पहुंच गया, वैशाली.  वही वैशाली जो प्राचीनतम गणराज्य था. लिच्छवियों का.  नगरवधु से बौद्धभिक्षुणी बनी आम्रपाली का।

बौद्ध धर्म के लिये तो वैशाली विशेष है ही लेकिन मेरे विचार से उससे जुडी एक खास बात पूरे समाज की दृष्टि से अति विशेष है. बुद्ध संघ में नारियों के प्रवेश के पक्षधर नहीं थे और यह वैशाली ही था जहाँ बुद्ध झुक गये और नारी को संघ में स्थान मिला. नारी पुरुष से हीन नहीं, उसकी कमजोरी भी नहीं, वह उनके साथ मिल कर संघ को चला सकती है.  वैशाली में बुद्ध को ढूंढा मिले नहीं, आम्रपाली भी नहीं मिली. सच तो यह है कि वैशाली ही नहीं मिला. पूरा क्षेत्र वैशाली के वैभव की छाया भी नहीं है. निर्धनता सब ओर दिख रही थी.  कारण ? मुझे तो लगता है इसके पीछे केवल धन का आभाव नहीं, इच्छा का आभाव भी है. एक छोटा सा उदाहरण, कोल्हुआ,  वैशाली के में  वह स्थान जहाँ बुद्ध ने लम्बा समय बिताया, कई चमत्कार किये और अपना अंतिम उपदेश दिया. सच यह कि वैशाली की पहचान एक सिंह वाली अशोक की लाट भी यहाँ है. पर जब वैशाली जनपद बना तो कोल्हुआ को मुजफ्फरपुर में छोड दिया.  भावशून्य सीमांकन.  यही भावशून्यता विकास के लिये भी है.

कुछ दिन बाद फिर एक अवसर आया तो फिर कुछ अडचन आयी और मैं गया के स्थान पर नालंदा जा पहुँचा. नालंदा, शायद दुनियां का सबसे पुराना विश्वविद्यालय जहाँ के द्वारपाल भी द्वार पंडित कहाते थे और प्रवेश के इच्छुक विद्यार्थियों का पहला टेस्ट ले लेते थे. बख्तियार खिलजी ने इसे 1193 में जला के खाक कर दिया. पुस्तकालय के खंडहरों में आग के निसान देखे तो दु:ख हुआ. एक धर्मांध के कारण विद्या का एक श्रेष्ठ मंदिर नष्ट हो गया.   वैशाली की तरह यहाँ भी जब ज्ञान तलाशा तो चारो ओर अशिक्षा ही अशिक्षा दिखी.

आज एक बार फिर अवसर मिला, गया जाने का. रास्ते में दीवारों पर आनंद मार्ग अमर रहे के नारे दिखे तो पता चला कि हम नक्सलवाद  प्रभावित क्षेत्र से गुजर रहे हैं. जहांनाबाद निकट आ रहा था, तभी सडक पर जाम दिखा. किसी के अपहरण के विरोध में. जाम इतना अधिक कि आगे बढना असंभव दिखा. बुद्ध के ज्ञानक्षेत्र में हिंसा एकमात्र विकल्प रह गया है ? लगा इस बार भी बुद्ध से मुलाकात नहीं होगी.   लौट की सोच ही रहे थे कि जाम के उस पार तक पैदल जाकर दूसरे वाहन से गया जाने की योजना बनी और अंतत: हम गया में हैं. नैरंजना नदी के किनारे किनारे देखा एक बालू का विस्तार.  बिना पानी की नदी या अंत:सलिला. मुझे लगा क्या यह नदी की मौत से पहले की स्थिति है? क्या सरस्वती भी ऐसे ही विलुप्त हो गयी?
फिर उस बोधिवृक्ष के नीचे पहुँचे जिसके नीचे बैठकर बुद्ध को ज्ञान मिला. थोडी देर बैठा और ध्यान लगाया. लौटने लगा तो सोचा बोधिवृक्ष का एक पत्ता ले चलूं. लेकिन वहाँ का वातावरण देख, तोडने का साहस नहीं कर सका. तभी मेरे ऊपर एक सूखा पत्ता गिरा. तो क्या ये बुद्ध से मुलाकात का प्रतीक था ? ज्ञान मिला ? हाँ ! बुद्ध के देश में अभी भी कितनी  निर्धनता है, कितनी अशिक्षा है, कितनी करुणा है?

रविवार, 4 अक्तूबर 2009

कुछ भी तो नहीं होता, और दिन हो जाता है कल


02 अक्टूबर 2009 : गांधीजी का जन्म हो या मेरा एक निराशा ही घेरती है, क्योंकि इतने सालों में कुछ भी बदलता नहीं. ऐसे ही क्षण में लिखा था...

कुछ भी तो नहीं होता, और दिन हो जाता है कल
सुबह होती है यूँ ही अलसाई सी और तभी आ जाती है
शाम भी दिन गिनता हूँ तो तीस हो जाते हैं और गिनता हूँ महिने तो बारह
साल गिनता हूँ तो लगता है कि कम है एक उम्र भी
यूँ ही कटता है जीवन का हर पल
कुछ भी तो नहीं होता, और दिन हो जाता है कल




रोज वही सब कुछ
स्कूल बसों के हार्न, आफिस जाने वालों का क्रंदन
फिर भी न जाने क्यों लगता है क्या रुक जायेगा जीवन का स्पंदन
इतने लोग हर ओर, सबका अपना अपना शोर
सुने कैसे कोई मेरा कोलाहल
कुछ भी तो नहीं होता, और दिन हो जाता है कल




मैं जीवन को जीता हूँ या जीवन जीता है मुझको
किससे पूंछू अपने जैसा ही पाता हूँ सबको
सोचा करता हूँ, बस कल से परिवर्तन होगा
पर हर रोज सुबह
घिर आते हैं आशंकाओं के बादल
कुछ भी तो नहीं होता, और दिन हो जाता है कल


प्रतिदिन करता हूँ अपने से
सपनो को सच करने के वादे
ऐसे ही बीत गये जीवन के दिन आधे ना जाने क्यूँ करता हूँ अपने से ये छ्ल
कुछ भी तो नहीं होता, और दिन हो जाता है कल

सोचा कितनी बार अब और नहीं रहने दुंगा मैं ऐसा संसार पर ना जाने क्यूँ
सोते में अपनी करवट भी नहीं सका बदल
कुछ भी तो नहीं होता, और दिन हो जाता है कल
मैं रुका भी नहीं, कहीं पहुँचा भी नहीं
न जाने कैसे रहा था मैं चल
कुछ भी तो नहीं होता, और दिन हो जाता है कल