मंगलवार, 23 मार्च 2010

क्राँति की फसल

23 मार्च 2010 
आज भगत सिंह का शहीदी दिवस है. आज उन्हें सुखदेव व राजगुरु के साथ फांसी दे दी गयी थी.  उन पर लिखी यह पोस्ट  संभव शर्मा की http://esambhav.blogspot.com/ पोस्ट Crop of Revolution का एक अनुवाद है

किसी भी फिल्म स्टार का जन्मदिन होता है तो सब टीवी चैनल सुबह से उन्हें हैप्पी बर्थडे की रट लगा देते हैं, पर हमारी आजादी के लिये अपनी जान दे देने वाले  महानायक किसी को याद भी नहीं आते.



मैं भगत सिंह के खटखरकलां,(जिला नवांशहर, पंजाब) के पैत्रिक घर के सामने खडी सोच रही थी कि किसी में इतना जुनून कैसे हो सकता है कि वह अपने देश की आजादी के लिये अपनी जान ही दे दे. हमारी पीढ़ी जिसने आजाद भारत में जन्म लिया, के लिये ये समझना बहुत मुश्किल है. भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर 1907 को हुआ और बाद में वे शहीद ऐ आजम के नाम से जाने गये. वे भारत के सबसे असरदार स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे.


जिस उम्र में हम निरुद्देश्य घूमते हैं उस उम्र में उन्होंने फांसी के फंदे को चूम लिया. 23 मार्च 1931 को फांसी के समय वे केवल 24 साल के थे. उस समय वह गाँधी जी से भी ज्यादा लोकप्रिय  थे और अपने समय के यूथ आइकोन थे. आज के फिल्म स्टारस से कहीं बडे. उन दिनों के युवा उन जैसे बनना चाहते थे.


उस बच्चे के बारे में सोचिये जिसने बंदूक बोई ताकि बंदूकों की फसल उगे. माना ये उसकी कल्पना थी पर उसने अपने जैसे विचारों वाले युवा जो देश के लिये जान ले सकते थे और दे भी सकते थे, के साथ क्रांति की फसल उगाई. 1919 में जलियांवाला हत्याकांड ने 12 साल के भगत सिंह को झकझोर दिया और उस दिन उसे अपने जीवन का उद्देश्य मिल गया. उन्होंने चंद्रशेखर आजाद जैसे नायकों के साथ मिल कर अपना जीवन देश को दे दिया  और हम माता पिता की रोक टोक पर ही कह उठते हैं, ये मेरी लाइफ है !


भगत सिंह से हमारी पीढ़ी जो सीख सकती है उसमें सबसे खास बात यह है कि उन्होंने कुछ भी उत्तेजना में नहीं किया. उनके सब काम चाहे वह सांडरस की हत्या हो या एसैम्बली में बंब फेंकना, एक सोची समझी योजना का हिस्सा थे. वे एसैम्बली में बंब फेंक कर भाग सकते थे पर उन्होंने गिरफ्तार होना पसंद किया. उनका उद्देश्य  था, कोर्ट की कार्यवाही को अपने विचार देश के युवाओं में फैलाने के माध्यम के रूप में प्रयोग करना.


और वे इसमें सफल रहे, अपने जीवन में भी और उससे ज्यादा अपनी मौत में भी. वे आज भी प्रासंगिक हैं, जब हमें उन जैसे निस्वार्थ नेता चाहिये. वे एक आदर्श थे तब के युवाओं के लिये भी और आज के भी. 


इस तीर्थ यात्रा जैसे सफर से घर लौटते हुये मुझे ये देखकर खुशी हुयी कि जहाँ तक कार के पीछे स्टिकर लगाने की बात है, पंजाब में आज भी भगत सिंह बहुत लोकप्रिय हैं. पर क्या स्टिकर के बाहर भी भगत सिंह हैं.


क्या केवल रंग दे बसंती जैसी फिल्मों का युवा ही उनका आज का संसकरण है. नहीं! भाई. हम जहाँ हों हम अपने लिये जगह बना सकते हैं. उनके विचार पढिये तो लगता है कि पिछ्ली शताब्दी के शुरू में भी वे कितने प्रोग्रेसिव थे.  आजादी केवल रोड पर बेरोक टोक घूमना तो है नहीं. भारत सचमुच, “सारे जहाँ से अच्छा” हो सके उसके लिये हमें एक और आजादी की लडाई शुरु कर ही देनी चाहिये. आजादी अशिक्षा से, जाति और धर्म की दीवारों से, भूख से और स्वास्थ से.


यदि भगत सिंह ये कर सकते थे तो हम भी कर सकते हैं वो भी तो हम जैसे ही थे.

4 टिप्‍पणियां:

  1. @ सबसे खास बात यह है कि उन्होंने कुछ भी उत्तेजना में नहीं किया. उनके सब काम चाहे वह सांडरस की हत्या हो या एसैम्बली में बंब फेंकना, एक सोची समझी योजना का हिस्सा थे. वे एसैम्बली में बंब फेंक कर भाग सकते थे पर उन्होंने गिरफ्तार होना पसंद किया. उनका उद्देश्य था, कोर्ट की कार्यवाही को अपने विचार देश के युवाओं में फैलाने के माध्यम के रूप में प्रयोग करना.

    यही तो महत्वपूर्ण था। गुलामी की संस्थाओं का उन लोगों ने सार्थक उपयोग किया जैसे रास्ते की रुकावटों को भी कोई आगे बढ़ने का साधन बना ले। सम्भव को बधाई - इतने बढ़िया लेख के लिए।

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  2. आभार इस दिवस पर इस अनुवाद का!

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    हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!

    लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.

    अनेक शुभकामनाएँ.

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  3. @उड़न तश्तरी, आपसे सहमत हूँ. प्रयास रहेगा कि टिप्पणी करने में नियमित रहूँ.

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  4. ज्ञानवर्धक आलेख. रामनवमी की शुभकामनायें.

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