पिछले दिनो कुछ ऐसा हुआ कि मुझे ये तस्वीर याद आयी. मैं अयोध्या में था और गलियों में घूमते घूमते एक युवती मिली अपने घर के द्वार पर. पिताजी ने कहा, बेटी कितनी भाग्यशाली हो, भगवान के सानिध्य में रहती हो. युवती ने कहा, हाँ, भाग्यशाली तो हूँ, तभी राक्षसों से बच के आ गयी. और पूछा तो पता चला दहेज की सताई थी, सुसराली जनों के अत्याचार से बचकर भागी.
फिर आयी खबर कि कैसे एक युवती को बीच समंदर दहेज की सुरसा ने निगल लिया. जबकि वो तो अपने पैरों पर खड़ी आधुनिक नारी थी.
सोचते सोचते याद आयी लगभग पच्चीस साल पुरानी उपर की तस्वीर, तीन या चार बहिनों ने कानपुर में मौत को गले लगाया था क्योंकि उन्हें लगता था कि दहेज के कारण वे अपने पिता पर बोझ हैं. इस तस्वीर ने मुझे झकझोर दिया था और मैंने निर्णय लिया कि मैं ऐसी शादी में नहीं जाउंगा जहाँ दहेज लिया जाये. जानते हैं क्या हुआ उस निर्णय का परिणाम ! तबसे आज तक मैं चार छ: शादियों में ही जा पाया. एक अपनी, जिसमें मैंने प्रतीक के रूप में कुछ लेना अस्वीकार किया, दो बहिनों की जिनमें मैंने कन्या दान भी नहीं किया क्योंकि मैंने माना कि मेरी बहिनें वस्तु नहीं जिन्हें मैं दान में देदूं. मैं बंधु बान्धवों मित्रों सबकी शादी से वंचित रहा. मेरा इतनी कम शादियों में जा पाना मेरी और समाज की हार है. कुछ नहीं बदल पाया 25 सालों में सिवा इसके कि अब दूसरी पीढ़ी की शादियां होने वाली हैं और मेरी पत्नी कहती हैं कि जब दूसरों की शादियों में नहीं जाओगे तो तुम्हारी बेटियों की शादियों में कौन आयेगा. मैं कहता हूँ, चाहता तो मैं भी हूँ कि जाऊँ और दुल्हे दुल्हन को आशीष दूं, पर क्या करूं इन लड़कियों की गरदन और छत के बीच की रस्सी ने बांधे रखा है मुझे.