वैशाली की यात्रा में बुद्ध की स्मृति से जुडे अनेक भग्नावशेष देखे. बुद्ध की अस्थियों पर बनाये गये स्तूप के अवशेष देखे, उनके अंतिम उपदेश का स्थान देखा. बज्जियों के लोकतांत्रिक रूप से चुने राजाओं के राज्याभिषेक से जुडा कुंड देखा. आम्रपाली के आम्रकुंज की किंवदंती सुनी और महावीर का जन्मस्थान भी देखा.
लेकिन इन सब के अलावा एक और संस्था के अवशेष सुने! जिस बज्जि संघ ने बुद्ध को संघ बनाने की प्रेरणा दी, उस संघ की भाषा के अवशेष. वैशाली में घूमते घूमते मैंने पाया कि लोग जो भाषा बोल रहे हैं वह इस भूभाग की भाषा के रूप में जानी जाने वाली भाषा मैथली / भोजपुरी से कुछ अलग है. जानकारी करने पर पाया कि यह बज्जिका है. इस नाम ने मन में और कोतूहल पैदा किया.
बज्जिका भारत के वैशाली, मुज्जफरपुर, शिवहर, सीतामढी एवं समस्तीपुर और नैपाल के सर्लाही जनपद की एक लोकभाषा है. अनुमानों के अनुसार पक्चीस लाख (कुछ अनुमान इसे पूरे एक करोड़ तक आँकते हैं) से अधिक लोग बज्जिका बोलते हैं. निसंदेह यह एक बडी संख्या है. परंतु साहित्य और व्याकरण के आभाव व राज्याश्रय न होने के कारण बज्जिका औपचारिक भाषा का रूप न ले सकी. लेकिन प्राचीन काल से लोगों द्वारा अबाध प्रयोग और पीढी दर पीढी संचरण के कारण इसका लोकभाषा का स्वरूप बना रहा.
लेकिन आज अन्य पडोसी भाषाओं जैसे मैथिल या भोजपुरी के प्रसार और टेलीविजन, समाचार पत्र (यद्यपि नैपाल में तो कुछ समाचार पत्र बज्जिका के पृष्ठ रखते हैं ) व शिक्षा के माध्यम से हिन्दी के प्रभाव ने बज्जिका को विलुप्त होने के कगार पर पहुँचा दिया है और यह केवल घोर ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों की आपस की भाषा भर रह गयी है और शहरी लोग अब हिन्दी बोलने लगे हैं. लोग घरों में बज्जिका बोलते पर पर बाहर हिन्दी बोलते हैं.
लेकिन क्या खो जाने का संकट केवल बज्जिका पर है ? नहीं, यूनेस्को की माने तो भारत की 196 बोलियां धीरे धीरे मौत की ओर बढ रही हैं. सच तो यह है कि तरह तरह की भाषा और बोलियों के पोषण का आभाव और अंग्रेजी के प्रति अति दीवानेपन के कारण वह दिन दूर नहीं जब बज्जिका ही नहीं उस जैसी कितनी ही बोलियां विलुप्त हो जायेंगी. इस धीमी मौत का अहसास मुझे हर बार तब होता है जब मैं अपने गाँव जाता हूँ और मुझे रसखान की ब्रज भाषा के शब्द सुनने को नहीं मिलते वरन बुजुर्गों के मुंह से भी शहरी खडी हिन्दी सुनाई देती है. कितने ही शब्द मौत की नींद सो चुके हैं और उनके अर्थ समझने या बताने वाले ढूँढे नहीं मिलते.
कहते हैं कि कुछ ही सालों में दुनिया भर में केवल आठ दस भाषायें बचेगी. ये मेंडारिन (चीनी), अंगरेजी, स्पेनिश, बांग्ला, हिंदी, पुर्तगाली, रूसी और जापानी आदि हैं। इनमें भी अंगरेजी तो सबके सिर पर सवार है ही. कुछ लोग कहते हैं कि इसमें बुरा क्या है, जितनी कम भाषायें उतना अच्छा संवाद. पर भाषा क्या केवल संवाद है ? भाषा संस्कृति भी है और इतिहास भी. जब कोई बज्जिका बोलता है तो वह बज्जि संघ की लोकतांत्रिक पम्पराओं को, आम्रपली के इतिहास को आगे बढा रहा होता है. जब कोई बनारस के घाट पर सुबह सुबह संस्कृत के वही मंत्र उच्चारित ( भले ही बिना उन्हें समझे, हाँ! समझने लगे तो फिर कहना ही क्या! ) करता है जो तीन हजार पहले उसके पूर्वज करते थे तो वह इतिहास के गौरवशाली पन्ने पलटता है और भाषाओं के उद्घाटित न होने से इतिहास के खो जाने का भय नहीं होता. एक भाषा की मौत के साथ वहाँ के जीवन की विशिष्टता और सांस्कृतिक धरोहरें भी काल कलवित हो जाती है. इजिप्ट का उदारहण देखे, वहाँ की भाषा के साथ वहाँ का इतिहास भी सहारा के रेत में खो गया और तभी उद्घाटित हुआ जब राजाओं की कब्र खुदीं और किसी ने गूढ़लिपियों को पढा.
मैं इस यात्रा से यह सोचता हुआ लौटा कि कितने ही मंदिरों, विहारों और प्रसादों का जीर्णोद्धार तो सर अलेक्जेंडर कनिंघम ने कर दिया पर क्या बज्जिका और उस जैसी अनेक भाषाओं का उद्धार कोई करेगा क्या?
thinking of my father ऐसे ही
3 वर्ष पहले